नथूराम गोडसे ने देश विभाजन के कारण किया गाँधी वध


गाँधी वध के बाद भी देश क्यों बटा 

गाँधी वध पर न्यायालय का फैसला न्या. श्री आत्माचरण अपने आसन पर विराजमान हुए थे। कठघरे में अभियुक्त अपने-अपने स्थान पर बैठे थे । दोनों पक्षों के अधिवक्ता उपस्थित थे । मुखपत्र के प्रतिनिधि और सवांददाता अपनी लेखनियाँ तैयार कर लिखने के मुड में बैठे थे। 

गाँधी वध में नथूराम गोडसे पर मुक़दमे के चलते न्यायालय खचाखच भरा था । अधिकारीयों से प्रवेश पत्रिकाएं लेकर ही न्यायमंदिर में लोगों को प्रवेश मिला था । 

दिनांक 8 नवम्बर, 1948 की बात है । दण्ड प्रक्रिया संहिता की अर्थात् क्रिमिनल प्रोसीजर कोड धारा 364 के अनुसार न्यायमूर्ति ने अभियुक्तों से प्रश्न पूछना प्रारंभ किया ।

“अभियुक्त क्रमांक एक, नाथूराम विनायक गोडसे, आयु 37 वर्ष, व्यवसाय संपादक ‘हिन्दुराष्ट्र’ मुखपत्र पूना।” जैसे ही अभियुक्त क्रमांक एक शब्द सुने, नाथूराम उठ खड़े हुए । न्यायमूर्ति ने कहा, “तुम्हारे विरुद्ध अभियोजकों ने साक्षियां प्रस्तुत कीं और जो प्रमाण दिए वे तुमने सुने हैं । तुम्हारा उस पर क्या कहना हैं?” 

नाथूराम ने कहा, “मुझे लिखित निवेदन प्रस्तुत करना हैं।” 

न्यायमूर्ति ने नाथूराम से निवेदन पढने के लिए कहा । 

“मान्यवर न्यायमूर्ति की सेवा में, मैं नथूराम विनायक गोडसे क्रमांक एक नम्रतापूर्वक निवेदन प्रस्तुत करता हूँ :- 

देशभक्ति को पा कहें यदि,

हूँ मैं पापी घोर भयंकर 

किन्तु रहा वह पुण्यकर्म तो 

मेरा है अधिकार पुण्य पर 

अचल खड़ा मैं इस वेदी पर ।

 उपरोक्त शब्दों में नथूराम ने अपने निवेदन प्रारंभ किया । इसके उपरांत अभियोजकों की ओर से साक्षियां समाप्त हुई थीं । प्रमाणों का प्रस्तुतिकरण पूरा हुआ । जिसमें अभियोजकों ने तरह-तरह के सबूतों से नथूराम गोडसे को गाँधी का कातिल साबित किया । 

लेकिन फिर भी नथूराम गोडसे ने हँसते-हँसते सब सुन कर अनसुना कर दिया, और कहने लगे की :- ‘यदि देशभक्ति पाप है तो मैं मानता हूँ मैंने पाप किया है ।

यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ । 

मुझे विश्वास है कि मनुष्यों द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमे मेरे काम को अपराध नहीं समझा जाएगा । 

मैंने देश और जाती की भलाई के लिए यह काम किया । 

मैंने उस व्यक्ति को गोली मारी है जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए, हिन्दू नष्ट हुए।’ 

अंत में एक सन्देश देते हुए कहते है की :- वास्तव में मेरे जीवन का उसी समय अंत हो गया था, जब मैंने गाँधी पर गोली चलाई थी । उसके पश्चात मैं मानो समाधि में हूँ और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ । 

मैं मानता हूँ की गाँधी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाएँ, जिसके कारण मैं उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, किन्तु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीं था । 

मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता हूँ । मैं यह भी नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से दया की याचना करें । 

अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना यदि पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है । यदि वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य-पद पर मेरा नम्र अधिकार हैं । 

मेरा विश्वास अडिग है की मेरा कार्य नीति की दृष्टि से पूर्णतया सूचित है । मुझे इस बात में लेशमात्र भी सन्देह नहीं कि भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित ठहराएंगे । 

उनके इस सन्देश को सुनकर न्यायमूर्ति ने उन्हें गाँधी का हत्यारा करार दिया और फांसी की सजा सुना दी ।
                                                                                                                                   - आलोक प्रभात 

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