नाथूराम गोडसे अंतिम पत्र
“आसिन्धु भारतवर्ष पूरी तरह से स्वतंत्र करने का मेरा ध्येय स्वप्न मेरे शरीर की मृत्यु से मारना आशाक्य है”
नथूराम गोडसे
अम्बाला सेंट्रल जेल
दिनांक 12-11-1949 ईo
परम वंदनीय माताजी व पिताजी अत्यंत विनम्रता से अंतिम प्रणाम! आपके आशीर्वाद विद्युत संदेश से मिल गए, आपने आज का अपना स्वास्थ्य और वृद्धावस्था की स्थिति में जहां तक न आने की मेरी विनती मान ली, इससे मुझे बड़ा संतोष हुआ है। आपके छाया चित्र मेरे पास हैं और उनका पूजन करके ही मैं ब्रह्म में लीन हो जाऊंगा। लौकिक व्यवहार के कारण आपको तो इस घटना से परम दुःख होगा, इसमें कोई भी संदेश नहीं है। लेकिन मैं यह पत्र किसी दुःख के आवेग से या दुःख की चर्चा के कारण नहीं लिख रहा हूँ।
आप गीता के पाठक हैं। आपने पुराणों का भी अध्ययन किया है। योगिराज श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश किया है और उसी योगिराज ने राजसूय यज्ञ भूमि पर, युद्ध भूमि पर नहीं, शिशुपाल जैसे एक राजा का अंत अपने सुदर्शन चक्र से किया है: कौन कह सकता है कि श्री कृष्ण ने पाप किया? श्री कृष्ण ने युद्ध मे और दूसरी तरह से भी अनेक अहंकारी और प्रतिष्ठित लोगो की हत्या विश्व के कल्याण हेतु की है और गीता के उपदेश में अर्जुन को अनेक बंधु-बंधुओं की हत्या करने के लिए बार-बार कह कर अंत में युद्ध के लिए प्रवृत किया है। पाप और पुण्य मनुष्य की कृति में नहीं, मनुष्य के मन में होता है। दुष्टों को दान देना पुण्य मनुष्य कृति में नहीं, मनुष्य के मन मे होता है। दुष्टों को दान देना पुण्य नही समझा जाता, वह अधर्म है, एक सीता देवी के कारण रामायण की गाथा बन गयी, एक द्रोपदी के कारण महाभारत के इतिहास का निर्माण हुआ।
सहस्त्रावधि स्त्रियों का शील भृष्ट हो रहा था और करने वाले राक्षसों की हर तरह से सहायता करने के यत्न कर रहे थे। ऐसी अवस्था में अपने प्राणों के भय से या जन निंदा के डर से कुछ भी नहीं करना यह मुझसे नहीं हुआ। सहस्त्रावधि रमणियों के आशीर्वाद मेरे भी पीछे हैं, मेरा बलिदान मेरी प्रिय मातृभूमि के चरणों पर है। अपना एक कुटुम्ब अथवा कुछ कुटुम्बियों की दृष्टि में हानि अवश्य हो गयी है। लेकिन मेरी दृष्टि के सामने छिन्न-विछिन्न मंदिर, कटे हुए मस्तिष्कों की लाशें, बालकों की क्रूर हत्यायें, नारियों की विडम्बना, हर घड़ी देखने मे आती थी।
आतताई और अनाचारी लोगों को मिलने वाला सहारा तोड़ना मैंने अपना पवित्र ईश्वरीय कर्तव्य समझा। मेरा मन शुद्ध, मेरी भावना अत्यंत शुद्ध थी, कहने वाले लाखों तरह से कहें तो भी मेरा मन क्षण के लिए भी अस्वस्थ नहीं हुआ। अगर संसार में कहीं स्वर्ग होगा, तो मेरा स्थान उसमें निश्चित है। उसकी प्राप्ति के वास्ते मुझे कोई विशेष प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है। अगर मोक्ष होगा तो मोक्ष की मनीषा मैं करता हूँ।
दया मांग कर आपने जीवन की भीख मांगना मुझे जरा भी पसंद नहीं था और आज की सरकार को मेरा धन्यवाद हैं कि उसने दया में रूप में मेरा वध नहीं किया, दया की भिक्षा से जिंदा रहना मैं असली मृत्यु समझता था। मृत्यु दंड देने वालों में मुझे मारने की शक्ति नहीं है मेरा बलिदान मेरी मातृभूमि अत्यंत प्रेम से स्वीकार करेगी। मैं उसकी तरफ सहास्य वदन से देख रहा हूँ और वह भी मुझे एक मित्र के नाते हस्तांदोलन कर रही है। ” आपुले मरण पाहिले म्या डोला। जाहला तो सोहला अनुपमेव”। नाथूराम गोडसे अंतिम पत्र
जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु, ध्रुवं जन्म मृत्युस्य च।
तस्माद् परिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।
गीता में तो जीवन और मृत्यु की समस्या का ही विवेचन श्लोक-श्लोक में भरा हुआ है। मृत्यु में ज्ञानी मनुष्य को शोक-विह्रल करने की शक्ति नहीं है। मेरे शरीर का नाश होगा, परंतु मेरी आत्मा का नहीं “आसिन्धु-सिंधु भारतवर्ष पूरी तरह से स्वतंत्र कराने का मेरा ध्येय-स्वप्न मेरे शरीर की मृत्यु से मारना अशक्य है।” अधिक लिखने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। सरकार ने आपको मुझसे मिलने का अंतिम अवसर नहीं दिया। सरकार से किसी भी तरह की अपेक्षा मुझसे मिलने का अंतिम अवसर नहीं दिया। सरकार से किसी भी तरह। की अपेक्षा नहीं रखते हुए मुझे यह कहना पड़ेगा कि अपनी सरकार किस तरह से मानवता के तत्व को अपना रही है?
मेरे मित्रगण और चिo दत्ता गोविंद, गोपाल आपको कभी भी अंतर नहीं देंगे। आपकी चि० अप्पा के साथ और बातचीत हो जाएगी, वह आपको सब वृत निवेदन करेगा। जिस देश में लाखों मनुष्य है कि जिनके नेत्र से मेरे बलिदान के आंसू बहेंगे। वह लोग आपके दुःख में सहभागी हैं। आप स्वयं को ईश्वर की निष्ठा के बल पर अवश्य संभालेंगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं।
अखंड भारत अमर रहे, वंदेमातरम । आपके चरणों को सहस्त्रश: प्रणाम!!
आपका विन्रम
नाथूराम गोडसे
-आलोक प्रभात

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