महर्षि कपिल सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक क्यों माने जाते हैं ?


महर्षि कपिल कृत सांख्यशास्त्र कितना महत्वपूर्ण हैं ? 

भारत में विश्व रचना विज्ञान के प्रवर्तक महर्षि कपिल थे उन्होंने ही सर्वप्रथम विश्व रचना का रसस्य व्यवस्थित रूप में बताया था । वे मनु के वंशज माने जाते हैं । उनकी माता का नाम देवहुति था । उनके पिता का नाम अभी तक अज्ञात है । महर्षि कपिल के संख्याशास्त्र का उल्लेख हमारे प्राचीनतम साहित्य में हुआ हैं । गीता में स्वयं महर्षि कपिल का भी उल्लेख है । इसके आधार पर आदि महर्षि कपिल का काल कम से कम हजार वर्ष पूर्व मानना चाहिए ।

एक कपिल मुनि राजस्थान में भी हुए हैं उनका जन्म ८वीं अथवा 9वीं शताब्दी के लगभग राजस्थान के प्रसिद्द नगर अमजेर के पास तीर्थराज पुष्कर के पास हुआ था । वे राजस्थान के गंगानगर नामक स्थान के निवासी भी माने जाते हैं । उनका आश्रम राजस्थान में बीकानेर जिले में कोलायत कस्बे में स्थित था, जहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है । कपिल ने सर्वप्रथम अणुओं और परमाणुओं का गहन अध्ययन किया महर्षि कपिल की स्वयं की रचना ‘सांख्यसूत्र’ नाम से जानी जाती है । जिस पर लिखित भाष्यरूप ‘सांख्यकारिका’ पर्याप्त परवर्ती ग्रन्थ हैं । मोटे रूप में हम इसे कपिल द्वारा प्रणीत सांख्यशास्त्र का संशोधित परिवर्धित रूप माँ सकते हैं ।

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सांख्यशास्त्र में विश्व रचना में सहायक 25 तत्त्व माने गए हैं । जिनमें से दो मुख्य है- 1. पुरुष और 2. प्रकृति ज्ञान के आभाव में प्रकृति अंधी हैं तथा क्रिया के अभाव इमं पुरुष पंगु हैं पुरुष और प्रकृति के संयोग से अंधपंगु न्याय से दोनों को ही लाभ हैं । पुरुष और प्रकृति के संयोग से सृष्टि चलती है । प्रकृति पुरुष के बंधन और मोक्ष दोनों का कारण हैं । प्रकृति पुरुष के अस्तित्व मात्र से स्वयं कार्य कर लेती हैं । उसमें ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती अत: अधिकांश लोगों ने सांख्यशास्त्र को निरीश्वर माना हैं । सांख्यशास्त्र में सृष्टि के सब पदार्थों के तीन वर्ग माने गए हैं-
1. अव्यक्त,
2. व्यक्त और
3. पुरुष प्रलयकाल में व्यक्त पदार्थों का स्वरूप नशोत हो जाने के कारण केवल दो ही तत्त्व- प्रकृति और पुरुष- शेष रहते हैं । जिन्हें सांख्यशास्त्र अनादि और अनन्त एवं मूल तत्व मानता हैं ।

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पुरुष और प्रकृति रूप मूल तत्त्वों से सृष्टि रचना विज्ञान का उल्लेख ग्रन्थ सांख्यशास्त्र में इस प्रकार हुआ हैं-“यद्यपि निर्गुण पुरुष कुछ भी नहीं कर सकता, तथापि जब प्रकृति के साथ उसका संयोग होता हैं । तब जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के लिए दूध देती है, या चुम्बक पास होंने से लोहे में आकर्षण शक्ति आ जाती हैं, उसी प्रकार मूल अव्यक्त प्रकृति अपने गुणों का व्यक्त फैलाव पुरुष के सामने फैलाने लगती हैं ।”

सांख्यशास्त्र में प्रकृति को अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों को न दिखाई देने वाली बताया गया है । इनमें सत्त्व, रज और तम, तीन गुणों की कमी अथवा वृद्धि के कारण हम अनेक पदार्थ देखते हैं, सुनते है, चखते हैं, या स्पर्श करते हैं । इन पदार्थों को सांख्यशास्त्र में व्यक्त कहा जाता है । सांख्यशास्त्र का प्रथम सिद्धांत यह है कि इस संसार में कोई भी नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती ।- आलोक नाथ 

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