
संतोष व्यक्ति को दृढ़ निश्चयी और बलवान बनाता है
सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ: ।।३५।।
योग तदन्तर (संतोषाद०) अर्थात् पूर्वोक्त संतोष से जो सुख मिलता है, वह सब से उत्तम है और उसी को मोक्ष सुख कहते है । प्रलोभनों से दूर रहना भी संतोष के लक्षण है जेठालाल वकील ने स्वामी जी से कहा कि यदि आप मूर्तिपूजा का मंडन करने लगें तो हम आपको ‘शंकर’ का अवतार मानने लगें । उन्होंने उत्तर दिया कि मैं ऐसे प्रलोभनों से सत्य को नहीं दबा सकता । इन्हीं जेठालाल जी ने एक दिन स्वामी जी से कहा कि आपकी संस्कृत बहुत सरल होती है और पंडितों की बहुत जटिल है । स्वामी जी बोले मेरा उद्देश्य लोगों को समझाना है, न कि अपना पाण्डित्य जताना, फिर मुझे इतना अवकाश कहाँ जो भाषा को जटिल बनाने में अपना समय लगाऊं ।
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भ्रष्ट भोजन कौनसा
एक दिन सुखवासीलाल साधु स्वामी जी के लिए कढ़ी और भात बनाकर लाये, और उन्होंने उसे खाया । इस पर ब्राह्मणों ने कहा- ‘आप भ्रष्ट हो गए, जो साधो के घर का भोजन खा लिया ।’ महाराज ने उत्तर दिया कि-‘भोजन दो प्रकार से भ्रष्ट होता है । एक तो- यदि किसी को दुःख देकर धन प्राप्त किया जाय, और उससे अन्न आदि क्रय करके भोजन बनाया जाय । दूसरे- भोजन मलिन हो या उसमें कोई मलिन वस्तु गिर जाय । साध लोगों का परिश्रम का पैसा है, उससे प्राप्त किया हुआ भोजन उत्तम है ।
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संतोषस्वरूप दान लेना चाहिए
एक दिन एक मारवाड़ी जो उनसे बहुत अनुरक्त था, उनके पास आया । वह दलाली का व्यवसाय करता था । उसने कहा कि मैं इस सत्कार्य के लिए कुछ रुपया देना चाहता हूँ । महाराजा ने पूछा की कितना तो उसने 1000 रूपए का एक नोट निकाल कर महाराज के सामने रख दिया । महाराज ने उसके मुख की ओर देखकर और उसके वेषादी से उसकी अवस्था का अनुमान करके उससे कहा की तुम्हारे पुत्र कलत्र भी होंगे और अन्य व्यय भी होंगे । अत: तुम 900 ले जाओ और 100 ही दे दो । उसने 1000 रूपए देने पर आग्रह भी किया परन्तु महाराज ने 100 ही रखे और 900 वापस कर दिए । वह महाराज को सह्रदयता और न्याय-परायणता के कारण महाराज के प्रति और भी अनुरक्त हो गया और महाराज की मन ही मन प्रशंसा करता हुआ चला गया ।
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भोजन में संतोष
कायमगंज के निवासकाल में लोगों ने कहा कि महाराज आपके पास पत्र नहीं है । स्वामी जी ने उन को उत्तर दिया कि हमारे हाथ ही पात्र है । स्वामी जी अर्धरात्रि तक लोगों को अपने पास रहने देते, तत्पश्चात सब को वहां से विदा कर देते थे । लोग कम्बल उढ़ा आते थे मगर उनको फेंक दिया करते थे । एक पहाड़ी ब्राह्मण उनको भोजन बनाकर खिलाया करता था । बहुत से लोग अनेक प्रकार के उत्तम भोजन पदार्थ लेकर जाते किन्तु वे सब वहीँ पड़े रहते थे, प्राय: अन्य लोग ही उन्हें खाते थे ।
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संतोष ही कर्तव्य है
वेंकटगिरी के महाराजा दो तौलिंगी ब्राह्मणों के साथ स्वामी जी से मिलने आये । अन्य विषयों के साथ मूर्तिपूजा पर उनसे चर्चा हुई । स्वामी जी ने कहा कि आप महाराज होकर किस प्रकार मूर्तिपूजा का पोषण करते है ? यदि आप उसका पोषण न करें तो आपके लिए तो ऐसा नहीं है कि दरिद्र ब्राह्मण के समान आपका उदर पोषण न हो सके । महाराजा ने कहा कि आपकी बात कई अंशों में ठीक है, परन्तु यदि आप अन्य बातों का प्रचार करें और मूर्तिपूजा की बात सब से पीछे के लिए रखें तो आपके वेदभाष्य के लिए जितने धन की आवश्यकता होगी हम देंगे । महाराज ने यह सुनकर कुछ आवेश के साथ कहा कि आप इन बातो को नहीं समझते । मैं क्या कोई दुकानदार हूँ जो रूपए के कारण अपने कर्तव्य को आगे पीछे करूँ ।
-Sabhar Alok Arya
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