सत्य बोलने वाले मनुष्यों को वेदों में क्या महत्व दिया गया है ?

सत्य का महत्व सत्य 


  • जो अधर्माचरण से रहित विद्या को ग्रहण करने की इच्छा वाले लोग उत्तम वाणी का प्रयोग करते हुए और सत्य धर्म का आचरण करते हुए सब की इच्छा को पूर्ण करते है, वे अति सत्कार करने योग्य होवें । दयानन्द वेदभाष्य ऋ० ३.५७.1 



  • हे मनुष्यों! तुम लोग सत्य धर्म से अनुपम सुख प्राप्त करो । ऋ० ५.५१.२ 



  • कभी भी राजा, राज्मंत्रिम राजकर्मचारी और प्रजाजन अपनी प्रतिज्ञा अथवा वाणी को मिथ्या न करें । जितनी कहें उतनी को सत्य ही करें । जिसकी वाणी सदा सच्ची है, वाही सम्राट हो सकता है । जब तक ऐसा नहीं होता तब तक राजा, राजपुरुष और प्रजाजन विश्वासयोग्य और सुख के बढाने वाले नहीं हो सकते । य़० ९.१२ 



  • सब मनुष्यों को देना, लेना प्रकट वस्तु का धारोहर रखना और मोहरबंद वस्तु का धारोहर रखना आदि व्यवहार सत्यापुर्वक ही करने चाहिए । जैसे कि किसी ने कहा-‘यह वस्तु तुम दोगे की नहीं?’ यदि वह कहे ‘देता हूँ अथवा दूंगा’ तो उसे वैसे ही करना चाहिए । किसी ने कहा ‘मेरी यह वस्तु तू अपने पास रख, जब मैं चाहू तब दे देना ।’                             इसी प्रकार मैं तुम्हारी वह वस्तु रखता हूँ, जब तू चाहेगा तब दे दूंगा, उस समय दे दूंगा अथवा तेरे पास आ जाऊंगा, तू ले लेना अथवा मेरे पास आ जाना’ इत्यादि व्यव्हार सत्यवाणी से करने चाहिए । इनके बिना किसी की प्रतिष्ठा और कार्यसिद्धि नहीं हो सकती है तथा इन दोनों के बिना कोई निरंतर सुख नहीं पा सकता है । यजु० ३.५० 



  • जो संयमी विद्वान् जन प्रेमपूर्वक सत्यभाषण रूप धर्मकर्म के साथ परमेश्वर की उपासना करते है, वे सुखसम्पन्न बनते है । ऋ० ३.६२.१२ 



  • जो पुरुषार्थी और सत्यवादी लोग सत्य का उपदेश करते हैं, वे नेता बनते है । ऋ० १.१७८.४ 



  • जो सत्य बोलते हैं, वे ही पवित्रात्मा होकर जल के समान शांत होते हुए, मृगों के समान शीघ्र अभीष्ट सुख प्राप्त करते हैं । ऋ० ४.५८.६ 



  • मनुष्यों को सदा समाने अथवा अन्य स्थान में सच्चाई ही बोलना चाहिए, जिससे सत्य ज्ञान सर्वत्र बढे । ऋ० ६.५६.४ 

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  • हे मनुष्यों! जो यहाँ असत्य बोलते है, वे अधर्मात्मा और जो सच्चाई बोलते है वे धार्मिक हैं, ऐसा आप लोग निश्चय जानें । ऋ० ७.२८.४ 



  • मनुष्य जब सत्य बोलते हैं, तब मुख का आकर मलिन नहीं होता है और जब असत्य बोलते हैं तब मुख मलिन हो जाता है । जैसे पृथवी पर वर्तमान औषधों को बढाने वाला मेघ है, वैसे जो सभासदों और श्रोताओं को सत्यभाषण से बढ़ाते है, वे सब के हितैषी होते हैं । ऋ० १.१८१.८ 



  • जो मनुष्य सच्चाई जानना और करना चाहें, वे सत्यज्ञान पाकर सत्य आचरण वाले हो सकते है । ऋ० ४.५५.५ 



  • जो मनुष्य धर्म के सत्यभाषण आदि व्रतों अथवा कर्मों को करते हैं वे सूर्य के समान सत्य से प्रकाशित होते हैं । ऋ० ५.६३.७ 



  • हे मनुष्यों! जैसे जल से प्राणों का धारण, अन्न आदि की उत्पत्ति, उत्तम रूप और दीर्घ आयु होती है, वैसे ही सत्य आचरण से समस्त एश्वर्य, विद्या और दीर्घ जीवन होता है, इसलिए तुम निरंतर सत्य का ही आचरण करो । ऋ० ४.२३.९ 



  • जो सत्य का आचरण करते है और उपदेश करते है, वे अगणित बल पाकर पृथ्वी का राज्य भोगते हैं । ऋ० १.२५१.४ 



  • हे मनुष्यों! जो मनुष्य-शरीर पाकर नियम से सत्य आचरण तथा सच्चाई याचना करके शीघ्र धार्मिक बनते हैं वे भूमि और सूर्य के समान सब की कामना की पूर्ति कर सकते है । जो मनुष्य सत्य आचरण करते है, उनकी कामना की पूर्ति कभी विघ्नयुक्त नहीं होती है । ऋ० ६.१६.१८ 



  • यदि मनुष्य विद्वानों की संगति में विद्वानों बनकर सत्य सुनें, सच्चाई देखें और ईश्वर की सतुति करें तो वे दीर्घ आयु वाले होवें । मनुष्यों को असत्य का श्रवण, बुरे का दर्शन, झूठी प्रशंसा और व्यभिचार कभी नहीं करना चाहिए । य० २५.२१ 



  • जो मनुष्य ईश्वर के समान उत्तम उसका अनुकरण करके सत्य को धारण करता है और असत्य को त्यागता है, वही योग्य है । य० १७.८१ 



  • मनुष्यों को कभी कहीं भी पापाचरण नहीं करना चाहिए यदि किसी प्रकार करने में आ जाय तो कुटुम्ब के सामने, विद्वानों के सामने और राजसभा में सत्य कह देना चाहिए । जो अध्यापक और उपदेशक स्वयं धार्मिक होकर अन्यों को बनाते है, उनसे बढ़कर सुभूषित करने वाला अन्य कौन हो सकता है । य० २०.१७                                                                                                                 -आलोक नाथ 



  • जैसे अकेली पृथवी अपने कक्षामार्ग में नित्य घुमती हैं, वैसी ही सभ्य मनुष्यों की वाणियाँ नियम से असत्यभाषण को त्यागकर सत्यमार्ग में चलती है । जो ऐसी वाणी का सेवन करते है, उनका कुछ भी बुरा नहीं होता है । ऋ० ३.७.२ 



  • जो देने योग्य वस्तु उसी समय दे देते है, जाने योग्य स्थान पर जाते है, प्राप्त करने योग्य को प्राप्त करते है और दण्डयोग्य को दण्ड देते है, वे सत्य ग्रहण कर सकते है । ऋ० २.२३.११ 



  • जो सत्य बोलने वाले, सत्य करने वाले और सच्चाई मानने वाले होते है, वे पूर्णकामना वाले होकर सब मनुष्यों को विद्वान् बना सकते । ऋ० ७.४३.४ 



  • मनुष्यों को जो प्राप्ति उत्तम सत्याचरण से उसे ही धारण करना चाहिए । इसके बिना सच्चा पराक्रम और सब पदार्थों का लाभ नहीं होता है । ऋ० १.१०३.५ 



  • मनुष्यों को सच्चाई का ग्रहण और असत्य का त्याग करके तथा अपने पुरुषार्थ से पूर्ण बल और एश्वर्य करके अपने अन्त:करण और अपनी इन्द्रियों को सत्य कर्म में प्रवृत करना चाहिए । ऋ० १.१३९.२ 



  • जहाँ जहाँ स्वामी और शिल्पी, आध्यापक और विद्यार्थी तथा राजपुरुष और प्रजाजन जावें अथवा आवें वहां वहां वे दोनों सभ्यता से ठहरकर विद्या और शांति से युक्त वचन बोलकर सुशीलता से सत्य बोलें और सत्य सुने । ऋ० १.१०८.७ 



  • जिसके द्वारा सच्चाई धारण करके असत्य त्यागा जाता है और मित्र के तुल्य सब को सुख दिया जाता है, वह सत्यसंधी वाला, दुष्टाचरण से पृथक् हुआ मनुष्य, सच्चाई तथा असत्य का ठीक ठीक विवेचनकर्ता और सब का माननीय हो सकता है । ऋ० २.१.४ 



  • हे मनुष्यों! जैसे चोर चोर का पदचिन्ह ढूंढ़कर पकड़ लेता है, वैसे ही आप लोग आत्माओं में सच्चाई धारण करके और कामनाओं को पूर्ण करके सब को प्रसन्न करें । ऋ० ५.६७.३ 



  • जो मनुष्य सदा सच्चाई आचरण वाले होकर सब का उपकार सिद्ध करते है, वे इस संसार में धर्मात्मा गिने जाते है । ऋ० ५.४५.७ 



  • जो अग्नि के समान तेजस्वी और वेगवान हों, वे सत्य और असत्य के विभागकर्ता हो सकते है । ऋ० ५.५०.४ 



  • हे मनुष्यों! जैसे प्राणी पावों में अभीष्ट स्थान पर जाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करते है, वैसे ही तुम लोग सत्यभाषण आदि कर्मों को धर्म के लिए प्राप्त करके अभीष्ट आनंद को सिद्ध करो । ऋ० ५.६७.७ 



  • जो पूर्ण विद्या वाले होते है, वे ही सत्य और असत्य का ज्ञान कराने वाले बनते है । ऋ० ७.६०.५

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