यज्ञ पर वेदों में अनेक जगह इसके के महत्व पर प्रकाश डाला है जिन्हें अर्थ सहित उद्धत किया गया हैं ।
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ते वो ह्रदे मनसे सन्तु यज्ञा: । ऋग्वेद 4.37.2
अग्निहोत्र तुम्हारे ह्रदय और मन की तृप्ति के लिए हों ।
नासिष्वेरापिर्न सखा न जामि: । ऋग्वेद 4.45.6
अयाज्ञिक का कोई बंधु, सखा या सम्बन्धी नहीं होता ।
यज्ञेयज्ञे न उदव । ऋग्वेद 5.5.9
यज्ञ-यज्ञ में हमें उत्कर्ष प्राप्त करा ।
अहेलमान उप याहि यज्ञम् । ऋग्वेद 6.4.41
भक्तिभाव से यज्ञ में पहुँच।
मा शिश्नदेवा अपि गुर्ऋतं न: । ऋग्वेद 7.21.2
कामक्रीड़ा करने वाले लोग हमारे यज्ञ में न आवें ।
मा यज्ञो अस्य िस्त्रधद् ऋतायो: ।। ऋग्वेद 7.34.17
सत्य के पुजारी का यज्ञ विफल नहीं होता ।
ईजानस्तरित द्विष: । ऋग्वेद 7.59.2
यज्ञ करने वाला द्वेषियों को जीत लेता हैं ।
इच्छन्ति देवा: सुन्वन्तम् । ऋग्वेद 8.2.18
यज्ञ करने वाले से विद्वान् लोग प्रीति करते हैं ।
यज्ञो वितन्तसाय्य: । ऋग्वेद 8.68.11
हवन सर्वत्र सुख फ़ैलाने वाला हैं ।
चारु प्रियतमं हवि: । ऋग्वेद 9.34.5
अग्निहोत्र की हवि चारू और प्रियतम हो ।
स्वाहा वयं कृणवामा हवींषि । ऋग्वेद 10.2.2
हम स्वाहापूर्ण हवियों की आहुति दें ।
निषिद होत्रमृतुथा यजस्व । ऋग्वेद 10.98.4
अग्निहोत्र में बैठे, ऋतु के अनुकूल यज्ञ करें ।
हवन की सम्पूर्ण विधि नासुन्वता सख्यं वष्टि शूर: । ऋग्वेद 10.42.2
शूर प्रभु हवन न करने वाले से मित्रता नहीं चाहता ।
यज्ञश्च भूद् विदथे चारुरन्तम: । ऋग्वेद 10.100.6
चारू अग्निहोत्र हमारे जीवन में निकटतम रहे ।
नाब्रह्मा यज्ञ ऋधग् जोषति त्वे । ऋग्वेद 10.105.8
ब्रह्मारहित हवन अलग पड़कर प्रभु को प्रिय नहीं होता ।
अरं कृण्वन्तु वेदिं समग्निमिन्धतां पुर: । ऋग्वेद 10.170.4
यज्ञवेदी अलंकृत करो, अग्नि प्रज्वलित करो ।
सहस्त्रंभर: शुचिजिह्वो अग्नि: । ऋग्वेद 2.9.1
पवित्र ज्वाला वाला यज्ञाग्नि सहस्त्र लाभ पहुँचाता हैं ।
जिघम्र्यग्निं हविषा घृतेन । ऋग्वेद 2.10.4
अग्निहोत्र को हवि और घृत से प्रदीप्त करता हूँ ।
यज्ञेन गातुमत्पुरो विविद्रिरे । ऋग्वेद 2.21.5
कर्मपरायण लोग अग्निहोत्र से सन्मार्ग की दिशा पाते हैं ।
हिरण्यवर्णं घृतमन्नमस्य । ऋग्वेद 2.35.11
पीतवर्ण घृत यज्ञाग्नि का अन्न हैं ।
जुहोमि हव्यं तरसे बलाय । ऋग्वेद 3.18.3
वेग और बल पाने के लिए हव्य की आहुति देता हूँ ।
वर्चो धा यज्ञवाहसे । ऋग्वेद 3.8.3 हे प्रभु,
यज्ञकर्ता को तेज प्रदान करो ।
बर्हिर्न आस्तामदिति: सुपुत्रा: । ऋग्वेद 3.4.11
सुपुत्रवती माता हमारे हवन में आकर बैठे ।
विप्रो यज्ञस्य साधन: । ऋग्वेद 3.27.8
बुद्धिमान मनुष्य यज्ञ का साधक होता हैं ।
यज्ञस्ते वज्रमहिहत्य आवत् । ऋग्वेद 3.32.12
यज्ञ तेरे व्रज को पाप-विनाथ के लिए प्रेरित करे ।
असिक्यां यजमानो न होता । ऋग्वेद 4.17.5
रात्रि में यजमान आहुति न दे ।
अयं यज्ञो भुवनस्य नाभि: । ऋग्वेद 1.164.35
यह यज्ञ भुवन का केंद्र हैं ।
अतमेरुर्यज्ञ: । यजुर्वेद 1.23
हवन ग्लानी मिटाने वाला हैं ।
ऊध्रर्वोअध्वर आस्थात् । यजुर्वेद 2.8
यज्ञ सबसे ऊपर स्थित है ।
यज्ञस्य शिवे सन्तिष्ठस्व । यजुर्वेद 2.14
अग्निहोत्र के शिव कर्म में सलंग्न हो ।
मेधायै मनसेअग्नये स्वाहा । यजुर्वेद 4.7
मेधा और मनोबल पाने के लिए हम अग्नि में आहुति देते हैं ।
दीक्षायै तपसे अग्नये स्वाहा । यजुर्वेद 4.7
दीक्षा और तपोबल पाने के लिए हम अग्नि में आहुति देते हैं ।
गंभीरमिममध्वरं कृधि । यजुर्वेद 6.30
यज्ञ को गंभीर बना ।
यज्ञो देवानां प्रत्येति सुम्नम् । यजुर्वेद 4.4
यज्ञ विद्वानों को सुख पहुँचाता हैं ।
प्रजानन् यज्ञमुपयाहि विद्वान । यजुर्वेद 8.20
विद्वान, तू हवन का लाभ जानता हुआ यज्ञ में आ ।
अग्नये गृहपतये स्वाहा । यजुर्वेद 10.23
गृहरक्षक यज्ञाग्नि में आहुति दो ।
सत्या: सन्तु यज्ञमानस्य कामा: । यजुर्वेद 12.44
यजमान की कामनाएं पूर्ण हो ।
सुब्रह्मा यज्ञ: सुशमि वसूनाम् । यजुर्वेद 15.34
उत्कृष्ट ब्रह्मा वाला अग्निहोत्र ऐश्वर्यों का सुकर्ता होता है ।
भद्रो नो अग्निराहुत: । यजुर्वेद 15.38
आहुति दी हुई यज्ञाग्नि हमारे लिए भद्र हो ।
स्वर्यन्तु यजमाना: स्वस्ति । यजुर्वेद17.69
यजमान लोग स्वरित तथा मोक्ष को प्राप्त करें ।
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषम् यत्र देवा: सहाग्निना । यजुर्वेद 20.35
वह देश पुण्यवान है, जहाँ विद्वान अग्निहोत्र करते हैं ।
आ जुहातो हविषा मर्जयध्वम् । साम० 63
अग्निहोत्र किया करो, हवि से पवित्रता लाओ ।
इदं हविर्यातुधानान् नदी फ़ेनमिवावहत् । अथर्ववेद 1.8.
यह हवि यातनादायक रोगों को बहा ले जाए, जैसे नदी झाग को ।
सम्यञ्चोअग्निं सपर्यत । अथर्ववेद 3.30.6
सब मिलकर अग्निहोत्र किया करो ।
यस्य कृणमो हविर्गृहे तमग्ने वर्धया त्वम् । अथर्ववेद 6.5.3
जिसके घर में हम अग्निहोत्र करें उसे प्रभु, तू बढ़ा ।
हविष्मन्तं मा वर्धय जयेष्ठतातये । अथर्ववेद 6.39.1
हे प्रभु, मुझ हविष्मान को बढ़ा, जिससे मैं जयेष्ठ बनू ।
घृतं तुभ्यं दुह्रतां गावो अस्मे । अथर्ववेद82.6
हे यज्ञाग्नि, तुझ में हवं के लिए गोएं हमें घृत देती रहे ।
अग्नेर्होत्रेण प्रणुदे सपत्नान् । अथर्ववेद 6.2.6
अग्निहोत्र से मैं रोगादि शत्रुओं को दूर करता हूँ ।
समिद्धो अग्नि: सुपुना पुनाति अथर्ववेद 12.2.11
प्रज्वलित यज्ञाग्नि अपनी सुपावकता से वायुमंडल को पवित्र करती है ।
वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम अथर्ववेद 19.55.3
हे यज्ञाग्नि, तुझे प्रज्जवलित करके हम शरीर की पुष्टि पायें ।
किमु स यज्ञेन यो गामिव यज्ञं न दुहीत । मै०सं० 1.4.5
उसका अग्निहोत्र करने से क्या लाभ, जो गाय के सदृश यज्ञ से कुछ दुहे नहीं ।
अग्निहोत्रे वै सर्वे यज्ञक्रतव: । मै०सं० 1.8.6
अग्निहोत्र में सब यज्ञकर्म समाविष्ट हैं ।
व्रतेन यज्ञ: सन्तत: । मै०सं० 3.6.6
व्रत से अग्निहोत्र अनुष्ठित होता हैं ।
स्त्रवति वै यज्ञो संस्थित: । क०क०सं०
अदृश यज्ञ चू जाता है ।
यज्ञो वै सुतर्मा नौ: । ऐ. ब्रा. 1.13
हवन आसानी से भावसगार पार कराने वाली नौका है ।
नादक्षिणेन यज्ञेन यजेत। का०श०ब्रा० 3.1.8.2
बिना दक्षिणावाला यज्ञ न करें ।
हवींषि ह वा आत्मा यज्ञस्य श०ब्रा० 1.6.3.39
हवियाँ ही यज्ञ का आत्मा है ।
शतोन्मानो वै यज्ञ: । श०ब्रा० 12.7.2.13
हवन सैकड़ों उत्थान देने वाला हैं ।
मुखं वा एतद् यज्ञानां यदग्निहोत्रम् ।। श०ब्रा० 14.3.1.19
अग्निहोत्र यज्ञों का मुख हैं ।
यज्यौ वै श्रेष्ठमं कर्म ।श०ब्रा० 1.7.1.5
हवन ही श्रेष्ठतम कर्म हैं ।
- स्वामी आलोकानन्द
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