अष्टांग योग क्या हैं व मनुष्य जीवन में इनका क्या महत्व हैं ?

अष्टांग योग सांसारिक मुक्ति में कितने सहायक हैं ? 

अष्टांग योग :- 

जिस प्रकार सांसारिक कार्यों की सफलता, उचित तथा नियमित दिनचर्या पर निर्भर है एवं प्रेत्यक योगभूमि का सेवन करने के लिए यम और नियम का आचरण करना अत्यावश्यक हैं। यधपि योगदर्शन और शास्त्रों में इनका विवरण किया भी है, तथापि योगदर्शन और अन्य शास्त्रों में इनका विवरण किया भी है, तथापि प्रसंगत: संक्षेप में यहां भी संकेत किया जाता है-


1. यम :-
1. अहिंसा– मन, वाणी और कर्म से पीड़ा त्याग, वैरवर्तन का त्याग। शब्दो से, विचारों से और कर्मो से किसी को हानि नहीं पढ़ना।

2. सत्य– मन, वाणी और कर्म से सत्य का सेवन, अर्थात सत्यविचार, सत्यभाषण और सत्कर्म करना। परम सत्य में स्थिर रहना, विचारों में सत्यता।

3. अस्तेय–  दूसरे के धन का अपहरण (चुराना आदि) न करना। चोर प्रवृति का होना ।

4. ब्रह्मचर्य– चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना।

5. अपरिग्रह– त्यागभाव से वर्तना- ये पांच यम कहाते हैं। आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना।

2. नियम :-

1. शौच– शरीर, अन्न, वस्त्र और स्थान की शुद्धि।

2. संतोष–  कार्य करते रहना और फल पर निर्भर न रहना अर्थात संतोष करना।

3. तप–  निज लक्ष्य, स्वकर्तव्य और धर्मानुष्ठान को कष्ट आने पर भी न त्यागना, उसके लिए सदा निरालसी होकर पुरुषार्थ                                         करते रहना।

4. स्वाध्याय –  धर्मशास्त्रों का अध्ययन करना।

5. ईश्वरप्रणिधान- सर्व प्रकार से अपने आपको ईश्वर के अर्पण करके उपासना-मार्ग पर चलना।उपर्युक्त यम और नियमों का सेवन सदा करते रहना चाहिए, ये व्रताभ्यास हैं।

3. आसन :-

योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रणयोगासन बहुत सारे हैं।
जैसे :- चक्रासन, भुजंगासन, धनुरासन, गर्भासन, गरुड़ासन, गोमुखासन, हलासन, मकरासन, मत्स्यासन, पद्मासन, पश्चिमोत्तासन,  सिंहासन, शीर्षासन, सुखासन, वज्रासन, योगमुद्रासन, गौरक्षासन, मयूरासन, शवासन आदि। 

4. प्राणायाम :- 

सांस लेने संबंधी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण करने वाले प्राणायाम भी बहुत सारे है। जैसे- कपालभाति प्राणायाम, ब्रह्य प्राणायाम, अनुलोम-प्रतिलोम प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम आदि।

5. प्रत्याहार:- 

इंद्रियों को अंतर्मुखी करना प्रत्याहार योग का पांचवा चरण है । योग मार्ग का साधक जब यम नियम रखकर एक आसन में स्थिर बैठ कर अपने वायु रूप प्राण पर नियंत्रण सीखता है, तब उसके विवेक को ढकने वाले अज्ञान का अंत होता हैं। तब जाकर मन प्रत्याहार और धारणा के लिए तैयार रहता है चेतना, मन और शरीर से ऊपर उठकर अपने स्वरूप में रुक जाने की स्थिति है प्रत्याहार। प्रत्याहार का अर्थ है- एक ओर आहरण यानी खीचना ।

6. धारण:- 

एकाग्रचित होना धारण अष्टांग योग का छठा चरण हैं। इसके पहले के पांच चरण योग में बाहरी साधन माने गए हैं। धारणा का अर्थ है- थामना, संभालना या सहारा देना । धारणा में चित को स्थिर कण्व के लिए एक स्थान दिया जाता हैं योगी मुख्यतः ह्रदय के बीच में, मष्तिष्क में और सुषुम्ना नाड़ी में विभिन्न चक्रों पर मन की धारणा करता है।

धारणा के सिद्ध होने पर योगी के के लक्षण प्रकट होने लगते है- देह स्वस्थ होती है। ,गले का स्वर सुधरता है।, योगी की हिंसा भावना नष्ट हो जाती है।, योगी को मानसिक शांति और विवेक प्राप्त होता हैं।, आध्यातमिक अनुभूतियां होती है। इत्यादि।

7. ध्यान:- निरंतर ध्यानयोग साधना का सातवां चरण है ध्यान। योगी प्रत्याहार से इंद्रियों को चित में स्थिर करता हैं व धारणा द्वारा उसे एक स्थान पर बांध लेता है। इसके बाद ध्यान की स्थिति आती है। धारणा की निरंतरता ही ध्यान है। ध्यान की उपमा तेल की धारा से की गई है।

जब वृत्ति समान रूप से अविछिन्न प्रवाहित हो मतलब बीच में कोई दूसरी वृत्ति ना आये उस स्थिति को ध्यान कहते हैं। धारणा ओर ध्यान से प्राप्त एकाग्रता चेतना को अहंकार से मुक्त करती है। सर्वत्र चेतनता का ओरण बोध समाधि बन जाती है।

8. समाधि:- आत्मा से जुड़ना, चैतन्य की अवस्था अष्टांगयोग की उच्चतम सोपान समाधि है। यह चेतना का वह स्वर है जहां मनुष्य पूर्ण मुक्ति का अनुभव करता है। योगशास्त्र के अनुसार ध्यान की सिद्धि होना ही समाधि है। समाधि अनुभूति की अवस्था है वह शब्द, विचार व दर्शन से परे है। -आलोक नाथ 

Post a Comment

0 Comments