स्त्री शिक्षा के मूल तत्व और इनकी आवश्यकता क्यों ?


सामाजिक दृष्टिकोण से स्त्री शिक्षा स्त्री शिक्षा :- हमें यह स्वीकार करना होगा कि विज्ञान और समाज चाहे जितने उन्नत हो जाएं और सामाजिक दृष्टि से स्त्रियों और पुरुषों के व्यवहार क्षेत्र तथा कार्य क्षेत्र में चाहे जितनी समानता आ जाय किन्तु पुरुषों और स्त्रियों की शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं और उन आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन में अवश्य अंतर रहेगा । यह अंतर कुछ तो उसकी नैसर्गिक प्रकृति की भिन्नता के कारण और कुह उनकी शारीरिक शक्ति और कर्यभिन्नता के कारण आवश्यक है । सामाजिक समानता का अर्थ यह नहीं है कि पुरुष और स्त्री दोनों की सामाजिक समानता प्रकृति एक हो जाय । यह संभव नहीं है ।

इसका अर्थ यही है की किसी प्रकार के सामाजिक अधिकार से स्त्रियां वंचित न हो । इसलिए स्त्रियों की मूलभूत, मनोवैज्ञानिक और भावात्मक विशेषताओं, उनकी सौन्दर्यात्मक वृत्ति, मातृत्वभावना, गृहिणी के रूप में उनके उत्तरदायित्व आदि का ध्यान रखते हुए उनकी शक्तियों के विकास के अनुकूल उनकी समान्य शिक्षा के पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाय । साथ ही उच्च शिक्षा एवं ज्ञान के सभी क्षेत्रों में उन्हें प्रगति करने की पूर्ण सुविधा प्रदान करनी होगी । इस दृष्टि से उनकी सामान्य शिक्षा का पाठ्यक्रम इस प्रकार होना चाहिए –

स्त्री शिक्षा के मूलभूत विषय सांस्कृतिक विषय :- भाषा, चित्रकला, नृत्य, संगीत, सांस्कृतिक एवं धार्मिक साहित्य, आदर्श नारियों के जीवन-चरित्र, योगाभ्यास, सांस्कृतिक पर्व मनाना इत्यादि ।

सामाजिक विषय :- इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं बाल मनोविज्ञान ।
व्यावहारिक :- सामान्य विज्ञान, गणित, स्वास्थ्य-विज्ञान, गृह-विज्ञान, शारीरिक व्यायाम, खेल, योगासन, सद्व्यवहार, अतिथि-सत्कार, शिशुपालन, घरेलू चिकित्सा आदि ।
हस्तकौशल :- गृह-सज्जा, सिलाई, कढाई-बुनाई, रंगाई, बागवानी आदि ।

स्त्री शिक्षा के पाठ्यक्रम के लिए स्वामी दयानन्द ने इतिहास और सत्यार्थप्रकाश, गृह-विज्ञान, कला तथा धर्म की शिक्षा पर बल दिया है । इन सबके साथ साथ पुरुषों के समान स्त्रियों को भी शारीरिक शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि वे स्वयं अपनी रक्षा कर सकें और निर्भय होकर घूम-फिर सकें । युवकों के समान युवतियों में भी साहस और शौर्य उत्पन्न करने की आवश्यकता हैं । ऐसी माताएं ही साहसी बालकों को जन्म दे सकती है । उन्हीं की गोद में पलकर देश का निर्माण करने वाले सपूत पैदा हो सकते हैं ।

शिशु-वाटिका प्राचीन भारत में तीन से छ: वर्ष की आयु के शिशुओं के लिए घर एक उत्तम शिक्षा केंद्र होता था । परिवार के बच्चों की माँ और दादी घर के आँगन में खेल आदि क्रिया कलापों एवं कहानी आदि के माध्यम से उनके विकास में रूचि लेती थीं । किन्तु आधुनिक काल में आर्थिक एवं सामाजिक परिवेश में परिवर्तन होने के कारण परिवारों में शिशुओं के शिक्षण का वातावरण प्राय: समाप्त होता जा रहा है । अब शिशु शिक्षा केन्द्रों के रूप में विभिन्न प्रकार के विद्यालय चलने लगे है । इन विद्यालयों को शिशु वाटिका (नर्सरी या किंडरगार्टन) कहते है । यूरोप और अमेरिका आदि पश्चिमी देशों में शिशुगृहों को संख्या अत्यधिक है । जिनका काम जीविका के लिए दिन में काम करने वाली माताओं के छोटे छोटे बच्चों की दिन भर देखभाल करना है । भारत में भी पश्चिम के अनुकरण के रूप में इस प्रकार के शिशु गृहों में पोषित बच्चों का संतुलित एवं समुचित विकास नहीं हो पाता ।

शिशु वाटिका विद्यालय इन शिशुगृहों से अलग है । इनमें 3 से 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों के सरंक्षण एवं शिक्षा की व्यवस्था होती है । पश्चिमी देशों में किंडर गार्टन के जन्मदाता फ्रोबेल ने बालकों की रचना शक्ति एवं सक्रियता का उपयोग करते हुए खेल खेल में आनंद के साथ विकसित होने की पद्धति का समर्थन किया है । मोंटेसरी ने स्वयंशिक्षा, निर्देशित स्वतंत्रता, आवयविक शिक्षा, बालक के व्यक्तित्व का आदर और स्वावलंबन आदि शिशु-शिक्षा सिद्धांतों की बात तो कही, परन्तु अपने बनायें हुए शिक्षा उपकरणों के आग्रह के कारण उसकी शिक्षा-पद्धति कृत्रिम हो गयी । वह शिक्षा क्रम भारत केलिए ही नहीं, संसार-भर के बालकों के लिए पूर्णत: अस्वाभाविक है । महाराष्ट्र में ताराबाई मोडक एवं गुजरात में गीजुभाई वधेका ने भारतीय शिशु शिक्षा पद्धति का विकास बालवाड़ी के रूप में करके सफल प्रयास किया है । ग्रामीण एवं वनवासी क्षेत्रों के बच्चों का स्थानीय सामग्री के माध्यम से, खेल-खेल में, क्रियाशीलता से मानसिक एवं इन्द्रिय विकास तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक एवं सांस्कृतिक गुणों का विकास करने की स्वाभाविक पद्धति के रूप में बालवाड़ी शिक्षा को मान्यता प्राप्त हुई है ।

प्राय: शिशु-विद्यालयों में, जो नर्सरी एवं मोंटेसरी के नाम से चलते है । प्राथमिक शिक्षा क्रम के समान ही पढ़ना लिखना अंकगणित आदि विषयों के शिक्षण पर आग्रह रहता है । 3-4 वर्ष की आयु से बालकों पर हम लिखने-पढने की औपचारिकता शिक्षा का भारी विपरीत प्रभाव पड़ता है । कोमल इन्द्रियों एवं मति के बच्चों का विकास इससे अवरुद्ध हो जाता है । 

अत: शिशु-वाटिका शिक्षा स्तर पर बालकों को उनकी रचना शक्ति एवं सक्रियता का पूर्ण उपयोग करते हुए, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास करने वाले अनौपचारिक पाठ्यक्रम की आवश्यकता है । भारत में सरस्वती शिशु मंदिरों में इस आयु के बालकों के लिए सफल शिशु वाटिका पद्धति एवं अनौपचारिकता पाठ्यक्रम का विकास एवं प्रयोग हो रहा है । -आलोक नाथ 

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