23 मार्च 1931 से एक दिन पहले 22 मार्च, 1931 को, सेन्ट्रल जेल के ही नम्बर वार्ड में रहने वाले बंदी क्रांतिकारियों ने भगतसिंह के पास एक परचा भेजा-‘सरदार’ यदि आप फांसी से बचना चाहते हो तो बताएं । इन घड़ियों में शायद कुछ हो सके ।‘ भगतसिंह ने उन्हें उत्तर लिख भेजा । साथियो, जिन्दा रहने की ख्वाहिश कुदरती तौर पर मुझमें भी होनी चाहिए । मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मेरा ज़िन्दा रहना मशरूत (एक शर्त पर) है, मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जिन्दा रहना नहीं चाहता । अंतरराष्ट्रीय मीडिया भारत की पॉजिटिव खबरों को खारिज करने में जुटा
साथियो,
मेरा नाम हिन्दुस्तानी इन्कलाब पार्टी (भारतीय क्रांति) का निशान (मध्य बिंदु) बन चूका है और इन्कलाब-पसन्द पार्टी (क्रांतिकारी दल) के आदर्शों और बलिदानों ने मुझे बहुत ऊँचा कर दिया है । इतना उंचा कि सूरत में इससे उंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता । यह पत्र 23 मार्च 1931 से एक दिन पहले का है। आज मेरी कमजोरियां लोगों के सामने नहीं हैं । अगर मैं फांसी से बच गया तो वह जाहिर हो जाएंगी और इन्कलाब का निशाना मद्धिम पड़ जायेगा या शायद मिट ही जाये, लेकिन मेरे दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी पाने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगतसिंह बन्ने की आरजू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जायेगी किरोकना इम्पीरियलिज्म (साम्राज्यवाद) की तमामतर (सम्पूर्ण) शैतानी के बस की बात न रहेगी ।चोर और राजा का प्रजा पर दुराचार
हां, एक विचार आज भी चुटकी लेता है। देश और इंसानियत के लिए जो कुछ हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवां हिस्सा भी मैं पूरा नहीं कर पाया । अगर जिन्दा रह सकता, तो शायद इनको पूरा करने का मौका मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता । यह पत्र 23 मार्च 1931 का सच। Maharishi Dayanand Saraswati (महर्षि दयानन्द सरस्वती ) का मृत्यु रहस्य
इसके सिवा कोई लालच मेरे दिल में फांसी से बच रहने के लिए कभी नहीं आया । मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कौन होगा ? मुझे आजकल अपने आप पर बहुत नाज़ (गर्व) हैं । अब तो बेताबी से आखरी इम्तिहां (परीक्षा) का इंतज़ार है । आरजू है करीब हो जाये ।
आपका साथी भगतसिंह -Alok Prabhat देश के नाम पीएम मोदी का संबोधन TOP 5 कार्यक्रमों में शामिल
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