चाणक्य नीति श्लोक (Chanakya Niti Shlok):- 

हिन्दी व्याख्या चाणक्य नीति श्लोक – 41. बाहुवीर्यं बलं राज्ञो बब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली । 
रुपयौवनमाधुर्यं स्त्रीणां बलमुत्तमम् ।। 
राजा की शक्ति उसकी भुजाओं में, विद्वान का बल उसके ज्ञान में और स्त्रियों का बल उनकी सुन्दरता और मधुर व्यवहार में होता है।(चाणक्य नीति श्लोक ४१) 

42. सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्य: स्वदारे भोजने धने । 
त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने  तपदानयो : ।।   
अपनी पत्नी, भोजन और धन-इन तीनों के प्रति संतोष रखना चाहिए, परन्तु विद्या अध्ययन, तप और दान के प्रति कभी संतोष नहीं करना चाहिए ।(चाणक्य नीति श्लोक ४२) 43.   पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्रह्मणमेव च । नैव गां न कुमारीं च न वृद्धं न शिशुं तथा ।। अग्नि, गुरु, ब्राहमण, गाय, कुँवारी कन्या, बूढ़े व्यक्ति और छोटे बच्चे को पैर से कभी नहीं छूना चाहिए ।(चाणक्य नीति श्लोक ४३) 

44. शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम् । 
हस्ति शतस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम् ।।
बैलगाड़ी से पांच हाथ, घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ साथ दूर रहना चाहिए। दुष्ट आदमी से बचने के लिए उस स्थान का ही त्याग कर देना चाहिए ।(चाणक्य नीति श्लोक ४४) 45.   हस्ति अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताड्यते । श्र्ङ्गी  लगुहस्तेन खड्गहस्तेन दुर्जन: ।। हाथी को अंकुश से, घोड़े को हाथ में लिए चाबुक से, सिंह वाले पशुओं को डंडे से वश में किया जा सकता है और दुष्ट व्यक्ति को नियंत्रण में करने के लिए तलवार आवश्यक है।(चाणक्य नीति श्लोक ४५) Chanakya Niti, चाणक्य नीति: भाग-2; हिंदी व्याख्या 21 से 40 श्लोक

46. तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते । 
साधव: परसम्पत्तौ खल: परविपत्तिषु ।। 
अध्ययन-अध्यापन में तत्पर लोग भोजन से तृप्त हो जाते हैं, मोर बादलों के गर्जने पर संतुष्ट होता है और सज्जन आदमी दूसरे को सम्पन्न और सुखी देखकर आनंदित होते हैं, परन्तु  दुष्ट लोग दूसरों को विपत्ति में उलझा देखकर खुश होते हैं ।(चाणक्य नीति श्लोक ४6) 

47. शुन: पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विधया विना । 
न गुह्यगोपेन शक्तं न च दशंनिवारणे ।।
विद्या के आभाव में मनुष्य का जीवन कुत्ते की उस पंच के समान हो जाता है, जिससे न तो वह अपने शरीर के गुप्त भागों को ढक सकता है और न ही काटने वाले मच्छरों आदि से स्वयं को बचा सकता है।(चाणक्य नीति श्लोक ४७) 

48. यत्रादकं तत्र वसन्ति हंसा: तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति । 
न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्ते पुनराश्रयन्ते ।। 
जिस सरोवर में जल रहता है, हंस वहीँ रहते हैं और जब जल सुख जाता है, तो उस स्थान को छोड़ देते हैं, परन्तु मनुष्य को हंस के समान नहीं होना चाहिए।(चाणक्य नीति श्लोक ४८) 49.    उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् । तडागोदकसंस्थानं परिवाह इवाऽम्भसाम् ।। अर्जित किए हुए धन को उचित ढंग से व्यय करना, उससे लाभ उठाना ही उसकी रक्षा है। जिस प्रकार तालाब में भरे हुए जल के प्रवाहित होते रहने से ही उस तालाब का पानी शुद्ध और पवित्र बना रहता है। (चाणक्य नीति श्लोक ४९) थल सेना प्रमुख बोले, भूभाग में अनिश्चितताओं को दूर करने की जरूरत

50. स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि चिह्ानि वसन्ति देहे । 
दानप्रसङ्ग: मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च ।।
स्वर्ग से इस संसार में आने वाले लोगों में चार प्रमुख गुण होते हैं। उनमे दान देने की प्रवृति होती है। वे मधुर भाषी होते हैं। वे देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं और विद्वान् व ज्ञानी लोगों को तृप्त रखते है।(चाणक्य नीति श्लोक ५०) 

51. अत्यन्तकोप: कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् । 
नीचप्रसङग्: कुलहीनसेवा चिह्ानि देहे नरकस्थितानाम् ।।
अत्यंत क्रोधी, कड़वी वाणी बोलने वाले दरिद्र, अपने सम्बन्धियों से बैर रखने वाले दुष्ट, व्यक्तियों के साथ रहने वाले और नीच कुल के लोगों की सेवा करने वाले मनुष्य को पृथ्वी लोक में ही नरक के दुखों का आभास हो जाता है।(चाणक्य नीति श्लोक ५१) 

52. गम्यते यदि मृगेन्द्र-मंदिरं लभ्यते करिकपोलमौक्तिकम् । 
जम्बुकाऽऽलयगते च प्राप्यते वत्स-पुच्छ-खर-चर्म-खण्डनम् ।। 
सिंह की गुफा में जाने पर हाथी के मस्तक का मोती प्राप्त हो सकता है, लेकिन गीदड़ की गुफा में जाने पर किसी बछड़े की पूंछ का टुकड़ा अथवा गधे की खाल का टुकड़ा ही प्राप्त होगा।(चाणक्य नीति श्लोक ५२) 

53. दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते । 
यदन्नं भक्षयेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा ।। 
जिस प्रकार दीपक अंधकार को खा जाता है और उससे काजल की उत्पत्ति होती है, इसी प्रकार मनुष्य जैसा अन्न खाता है, वैसी ही उसकी संतान उत्पन्न होती है।(चाणक्य नीति श्लोक ५३) 

54. वाच: शौचं च मनस: शौचमििन्द्र्यनिग्रह: । 
सर्वभूते दया शौचं एतच्छौचं पराऽर्थिनाम् ।। 
वाणी में पवित्रता, मन में शुद्धता, इन्द्रियों का संयम, प्राणिमात्र पर दया, धन की पवित्रता आदि गुण मोक्ष प्राप्त करने वाले मनुष्यों के लक्षण होते है।(चाणक्य नीति श्लोक ५४) 

55. पुष्पे गन्धं तिले तैलं काष्ठेऽग्निं पयसि घृतम् । 
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याऽऽत्मानं विवेकतः ।।
जिस प्रकार फूल में सुगंध, तीलों में तेल, सुखी लकड़ी में अग्नि, दूध में घी और ईख में मिठास अदृशय रूप में उपस्थित होते हैं, वैसे ही शरीर में आत्मा और परमात्मा विद्यमान रहते हैं।(चाणक्य नीति श्लोक ५५)  दान देने वालों को मिलेगी इनकम टैक्स में छूट…

56. अधम धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमा: । 
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम् ।।
नीच कोटि के लोग केवल धन की इच्छा करते हैं, माध्यम श्रेणी के लोग धन और सम्मान दोनों को और उत्तम कोटि के मनुष्य केवल आदर-सम्मान की ही इच्छा रखते हैं।(चाणक्य नीति श्लोक ५६) 

57. नग्निहोत्रं विना वेदा न च दानं विना क्रिया । 
न भावेन विना सिद्धिस्तस्माद्भावो हि कारणम् ।। 
यज्ञ किए बिना वेदों का अध्ययन करना व्यर्थ है तथा दान के बिना यज्ञ करना व्यर्थ हैं। भाव के बिना किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती है। (चाणक्य नीति श्लोक ५७) 

58. तैलोऽभ्यंगे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि । 
तावद्भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न चाऽऽचरेत्।।
तेल से शरीर की मालिश करने के बाद, चिता के धुएँ के स्पर्श के बाद, स्त्री से सम्भोग करने के बाद और हजामत के बाद मनुष्य जब तक स्नान नहीं कर लेता, तब तक वह चाण्डाल यानि अशुद्ध रहता है।(चाणक्य नीति श्लोक ५८) 

59. अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् । 
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ।।
अपच की स्थिति में जल पानी दवा के सामान होता है, भोजन पचने के बाद जल पीने से शरीर का बल बढ़ता है, भोजन के बीच में जल पानी अमृत के सामान होता है, परन्तु भोजन के अंत में जल पीना विष के समान हानिकारक होता है।(चाणक्य नीति श्लोक ५९) वेद भाष्य कौन से है और किस भाष्यकार के उत्तम भाष्य है ?

60. निर्गुणस्य हतं रूपं दु:शीलस्य हतं कुलम् । 
असिद्धस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम् ।।
गुणहीन व्यक्ति का रूपवान होना व्यर्थ है, दुष्ट स्वभाव वाले व्यक्ति का कुल नष्ट होने योग्य हैं। जिसमें किसी भी कार्य को सिद्ध करने की शक्ति न हो, ऐसी विद्या व्यर्थ है और जिस धन का सदुपयोग नहीं किया जाता, वह धन भी व्यर्थ  है।(चाणक्य नीति श्लोक 6०) -आलोक आर्य