हिंदी बनी हिन्दुस्तानी (कैसे हिंदी भाषा को हिन्दुस्तानी भाषा का दर्जा मिला)
हिंदी कैसे बनी हिन्दुस्तानी स्वामी दयानंद सरस्वती, वीर सावरकर, बंकिमचंद्र और तिलक से लेकर गांधी जी, राजा जी जैसे हमारे महान राष्ट्रोनन्यकों ने हिंदी को एक ऐसी समान राष्ट्रीय जन-सम्पर्क-भाषा बनाने के लिए कठिन प्रयत्न किया जो देश के एक छोर से दूसरे छोर तक बोली जा सके। इस बारे में सभी सहमत थे कि एक ऐसी संपर्क-भाषा की तत्काल से अंकुरित हो और नाना भाषाओं, सम्प्रदायों, जातियों तथा प्रान्तों आदि के विभिन्न समूहों में आपसी भाईचारे की भावना को पुष्ट करें। गोवध अंग्रेजी शासनकाल से अब तक क्यों और कितना हुआ ?
मातृभाषा के रूप में हिंदी भाषा-भाषी लोग सबसे अधिक संख्या में थे। हिंदी सामाजिक संपर्क का वहन भी थी। इसे अन्य भाषा-भाषी समूह सहज ही सहोदरा मान सकते थे, क्योंकि संस्कृत तो सभी की जननी थी। संस्कृतमूलक होने से हमारी प्रायः सभी प्रमुख भाषाएं संस्कृत-प्रदत्त समान सांस्कृतिक परंपरा से समृद्ध हुई हैं। अतः स्वाभाविक था कि राष्ट्रीय आत्माभिव्यक्ति के आंदोलन के क्षेत्र में हिंदी की हरियाली दूर-दूर तक लहलहाने लगी।
मुस्लिमों का हिंदी भाषा के विरोध में प्रदर्शन परंतु मुस्लिम लीग इसे सहन न कर सकी। वह हाथ धोकर हिंदी के पीछे पड़ गयी। उसे हिन्दू आधिपत्य का प्रतीक कहने लगी। लीग ने घोषणा कर दी कि वह कांग्रेस से तभी सहयोग करेगी जब कांग्रेस हिंदी के स्थान पर उर्दू को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लेगी।यहां यह आवश्यक होगा कि उर्दू की उत्पत्ति को समझ लिया जाए। देखा जाय कि मुस्लिम समुदाय से उसका क्या नाता था। तभी पता चल जाएगा कि विवाद को उभारने के पीछे लीग का वास्तविक मन्तव्य क्या था। किंतु बाबर से लेकर औरंगजेब तक सभी मुगल बादशाह तुर्की अथवा फारसी बोलते थे, उर्दू तो भूलकर भी नहीं।
मात्र पिछले 100-200 वर्षो से ही उर्दू मुसलमानों के अधिक वर्गों में बोले जाने लगी। ब्रिटिश शासन के आरंभ में बिहार जैसे प्रान्तों में अंग्रेजो ने मुगलो को परंपरा को बनाएं रखा और सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों में फ़ारसी का प्रयोग चलता रहा। लेकिन जैसे जैसे समय बीतने लगा अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ने लगा। लेकिन हिंदुओं ने विदेशी भाषा लादे जाने का विरोध किया । वे आग्रह करने लगे कि विद्यालयों और सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग किया जाए। दांत की सफाई में पेस्ट या दातुन फायदेमंद है ?
मुसलमान ने समझा कि हिंदुओं का यह प्रयास, उनके विगत साम्राज्यवादी वैभव के जो अवशेष राह गए थे, उन्हें खत्म करने के लिए है। वे चिल्लाने लगे उर्दू का जनाजा है, जरा शान से निकालें। हिंदी के विरोध में उर्दू की दीवार बनने लगे। लेकिन वास्तविकता यह थी कि न तो उर्दू मुसलमानों के एकाधिकार की वस्तु थी न ही हिंदी हिंदुओं के एकाधिकार की। उर्दू के लिए फ़ारसी लिपि बाद में अपनाई गई। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो उर्दू भाषा कहलाने योग्य भी नही है। भाषा के लिए यह अनिवार्य है कि उसका अलग व्याकरण और क्रियापद हो।
उर्दू इन दोनों ही कसौटियों पर खरी नहीं उतरती है। मुसलमानों ने इसे हिंदी से उधार लिया है। यह सत्य है कि उर्दू हिंदी की फ़ारसी प्रभावित बोली है। हिंदी और उर्दू में मुख्य भेद यह है कि उर्दू की लिपि फ़ारसी है और हिंदी की देवनागरी। इसलिए मुस्लिम उर्दू और हिंदी के प्रश्न को मुसलमान और हिन्दू का प्रश्न बनाने का प्रयास करते है। जो पूर्ण रूप से राजनीतिक से प्रेरित है। मुसलमान कहते है कि उर्दू उनकी सम्प्रदायसम्मत भाषा है। जोकि सत्य से बहुत दूर की बात है। भारत के अधिकांश मुस्लिम स्थानीय भाषा बोलते है व उस पर बंगाली हिंदुओं जैसा गर्व करते है। पाकिस्तान बनने के बाद जब पश्चमी पाकिस्तान ने उन पर उर्दू थोपने का प्रयास किया तो बंगालियों ने विरोध की आधी उड़ा दी। यह बंगलादेश के विद्रोह का भी मुख्य कारण था।
परंतु कांग्रेस ने समस्या के गुण दोष में पैठने का कभी प्रयत्न नहीं किया। राष्ट्रवादी तो क्या, अन्य कोई कसौटी भी निश्चित नहीं कि गयी। उन्होंने प्रयास किया कि कैसे भी मुसलमानों को अपने खेमे में लाया जाए। जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस इस प्रश्न पर भी झुक गयी। और यहां भी राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज की भांति समझौता स्वीकार कर लिया। हिंदुस्तानी नामक एक नई दो भाषाओ हिंदी और उर्दू के मेल से बनी भाषा का प्रस्ताव रखा गया। कांग्रेस ने हिंदी के स्थान पर प्रतिष्ठत करना स्वीकार का लिया। कांग्रेस ने आश्वासन दिया कि नागरी और उर्दू दोनों ही लिपियों में लिखी गयी ‘हिंदुस्तानी’ राष्ट्रभाषा होगी। दोनों लिपियों को सरकारी मान्यता दी जाएगी और सम्बद्ध लोगो को चयन करने की छूट होगी। Human Brain Science
यह तो मानना पड़ेगा कि भाषा अभिव्यक्ति का केवल कोई यांत्रिक वाहन नहीं है। वह जन संस्कृति का अभिन्न अंग है। यदि माध्यम ही वर्णसंकर हो जाता है। हिंदुस्तानी के प्रयोग भी इसी सत्य की पुष्टि करते है । बच्चों के लिए नवकल्पित हिंदुस्तानी पाठ्यपुस्तकों में श्री राम बन गए- ‘बादशाह राम’, सीताजी बन गयी ‘बेग़म सीता’ लक्ष्मण बन गए ‘शहजादा लक्ष्मण’ और मुनि वशिष्ठ को बना दिया ‘मौलाना वशिष्ठ’ । ‘हिन्दू मुस्लिम एकता के रूप में उन सबका पुनर्जन्म हो गया था। राष्ट्रभाषा विकृति का तीसरा आखेट बनी। उसे विकलांग बना दिया गया व हिंदी हिंदुस्तानी बन गयी। ऐसा बहुत इतिहास है जो केवल हमारा है लेकिन उसे राजनीतिक षड़यंत्र ने तोड़-मरोड़ कर रख दिया । इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट करने में कांग्रेस हाथ है । नेहरु, गाँधी जैसे बहुत से नेता हुए जिन्होंने भारत देश को मात्र बरगलाने का ही काम किया हैं ।
भारत देश में क्रांतिकारीयों की खान होने के कारण कुछ इतिहास ही बिना मिलावटी बचा हैं । इस्राइल देश ही एक ऐसा देश बना है जिसने अपनी भाषा का पुनर्जन्म किया हैं । इस्त्राइल ने हिब्रू भाषा को जन्म देकर उसे पुन: अपने देश के सभी कार्यों में लागु किया हैं । अगर कोई भी इस्त्राइल नागरिक इसका विरोध करता है तो उसे सरकार ही हिदायतों के अनुसार उचित दण्ड देने का प्रावधान हैं । -आलोक प्रभात
हिंदी कैसे बनी हिन्दुस्तानी स्वामी दयानंद सरस्वती, वीर सावरकर, बंकिमचंद्र और तिलक से लेकर गांधी जी, राजा जी जैसे हमारे महान राष्ट्रोनन्यकों ने हिंदी को एक ऐसी समान राष्ट्रीय जन-सम्पर्क-भाषा बनाने के लिए कठिन प्रयत्न किया जो देश के एक छोर से दूसरे छोर तक बोली जा सके। इस बारे में सभी सहमत थे कि एक ऐसी संपर्क-भाषा की तत्काल से अंकुरित हो और नाना भाषाओं, सम्प्रदायों, जातियों तथा प्रान्तों आदि के विभिन्न समूहों में आपसी भाईचारे की भावना को पुष्ट करें। गोवध अंग्रेजी शासनकाल से अब तक क्यों और कितना हुआ ?
मातृभाषा के रूप में हिंदी भाषा-भाषी लोग सबसे अधिक संख्या में थे। हिंदी सामाजिक संपर्क का वहन भी थी। इसे अन्य भाषा-भाषी समूह सहज ही सहोदरा मान सकते थे, क्योंकि संस्कृत तो सभी की जननी थी। संस्कृतमूलक होने से हमारी प्रायः सभी प्रमुख भाषाएं संस्कृत-प्रदत्त समान सांस्कृतिक परंपरा से समृद्ध हुई हैं। अतः स्वाभाविक था कि राष्ट्रीय आत्माभिव्यक्ति के आंदोलन के क्षेत्र में हिंदी की हरियाली दूर-दूर तक लहलहाने लगी।
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मुस्लिमों का हिंदी भाषा के विरोध में प्रदर्शन परंतु मुस्लिम लीग इसे सहन न कर सकी। वह हाथ धोकर हिंदी के पीछे पड़ गयी। उसे हिन्दू आधिपत्य का प्रतीक कहने लगी। लीग ने घोषणा कर दी कि वह कांग्रेस से तभी सहयोग करेगी जब कांग्रेस हिंदी के स्थान पर उर्दू को राष्ट्रभाषा स्वीकार कर लेगी।यहां यह आवश्यक होगा कि उर्दू की उत्पत्ति को समझ लिया जाए। देखा जाय कि मुस्लिम समुदाय से उसका क्या नाता था। तभी पता चल जाएगा कि विवाद को उभारने के पीछे लीग का वास्तविक मन्तव्य क्या था। किंतु बाबर से लेकर औरंगजेब तक सभी मुगल बादशाह तुर्की अथवा फारसी बोलते थे, उर्दू तो भूलकर भी नहीं।
मात्र पिछले 100-200 वर्षो से ही उर्दू मुसलमानों के अधिक वर्गों में बोले जाने लगी। ब्रिटिश शासन के आरंभ में बिहार जैसे प्रान्तों में अंग्रेजो ने मुगलो को परंपरा को बनाएं रखा और सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों में फ़ारसी का प्रयोग चलता रहा। लेकिन जैसे जैसे समय बीतने लगा अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ने लगा। लेकिन हिंदुओं ने विदेशी भाषा लादे जाने का विरोध किया । वे आग्रह करने लगे कि विद्यालयों और सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग किया जाए। दांत की सफाई में पेस्ट या दातुन फायदेमंद है ?
मुसलमान ने समझा कि हिंदुओं का यह प्रयास, उनके विगत साम्राज्यवादी वैभव के जो अवशेष राह गए थे, उन्हें खत्म करने के लिए है। वे चिल्लाने लगे उर्दू का जनाजा है, जरा शान से निकालें। हिंदी के विरोध में उर्दू की दीवार बनने लगे। लेकिन वास्तविकता यह थी कि न तो उर्दू मुसलमानों के एकाधिकार की वस्तु थी न ही हिंदी हिंदुओं के एकाधिकार की। उर्दू के लिए फ़ारसी लिपि बाद में अपनाई गई। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो उर्दू भाषा कहलाने योग्य भी नही है। भाषा के लिए यह अनिवार्य है कि उसका अलग व्याकरण और क्रियापद हो।
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उर्दू इन दोनों ही कसौटियों पर खरी नहीं उतरती है। मुसलमानों ने इसे हिंदी से उधार लिया है। यह सत्य है कि उर्दू हिंदी की फ़ारसी प्रभावित बोली है। हिंदी और उर्दू में मुख्य भेद यह है कि उर्दू की लिपि फ़ारसी है और हिंदी की देवनागरी। इसलिए मुस्लिम उर्दू और हिंदी के प्रश्न को मुसलमान और हिन्दू का प्रश्न बनाने का प्रयास करते है। जो पूर्ण रूप से राजनीतिक से प्रेरित है। मुसलमान कहते है कि उर्दू उनकी सम्प्रदायसम्मत भाषा है। जोकि सत्य से बहुत दूर की बात है। भारत के अधिकांश मुस्लिम स्थानीय भाषा बोलते है व उस पर बंगाली हिंदुओं जैसा गर्व करते है। पाकिस्तान बनने के बाद जब पश्चमी पाकिस्तान ने उन पर उर्दू थोपने का प्रयास किया तो बंगालियों ने विरोध की आधी उड़ा दी। यह बंगलादेश के विद्रोह का भी मुख्य कारण था।
परंतु कांग्रेस ने समस्या के गुण दोष में पैठने का कभी प्रयत्न नहीं किया। राष्ट्रवादी तो क्या, अन्य कोई कसौटी भी निश्चित नहीं कि गयी। उन्होंने प्रयास किया कि कैसे भी मुसलमानों को अपने खेमे में लाया जाए। जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस इस प्रश्न पर भी झुक गयी। और यहां भी राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज की भांति समझौता स्वीकार कर लिया। हिंदुस्तानी नामक एक नई दो भाषाओ हिंदी और उर्दू के मेल से बनी भाषा का प्रस्ताव रखा गया। कांग्रेस ने हिंदी के स्थान पर प्रतिष्ठत करना स्वीकार का लिया। कांग्रेस ने आश्वासन दिया कि नागरी और उर्दू दोनों ही लिपियों में लिखी गयी ‘हिंदुस्तानी’ राष्ट्रभाषा होगी। दोनों लिपियों को सरकारी मान्यता दी जाएगी और सम्बद्ध लोगो को चयन करने की छूट होगी। Human Brain Science
यह तो मानना पड़ेगा कि भाषा अभिव्यक्ति का केवल कोई यांत्रिक वाहन नहीं है। वह जन संस्कृति का अभिन्न अंग है। यदि माध्यम ही वर्णसंकर हो जाता है। हिंदुस्तानी के प्रयोग भी इसी सत्य की पुष्टि करते है । बच्चों के लिए नवकल्पित हिंदुस्तानी पाठ्यपुस्तकों में श्री राम बन गए- ‘बादशाह राम’, सीताजी बन गयी ‘बेग़म सीता’ लक्ष्मण बन गए ‘शहजादा लक्ष्मण’ और मुनि वशिष्ठ को बना दिया ‘मौलाना वशिष्ठ’ । ‘हिन्दू मुस्लिम एकता के रूप में उन सबका पुनर्जन्म हो गया था। राष्ट्रभाषा विकृति का तीसरा आखेट बनी। उसे विकलांग बना दिया गया व हिंदी हिंदुस्तानी बन गयी। ऐसा बहुत इतिहास है जो केवल हमारा है लेकिन उसे राजनीतिक षड़यंत्र ने तोड़-मरोड़ कर रख दिया । इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट करने में कांग्रेस हाथ है । नेहरु, गाँधी जैसे बहुत से नेता हुए जिन्होंने भारत देश को मात्र बरगलाने का ही काम किया हैं ।
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