Chanakya Neeti (चाणक्य नीति श्लोक) भाग-6, 101 से 120

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Chanakya Neeti (चाणक्य नीति ) :- हिंदी अनुवाद :

101. अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत: । 
नित्यं सन्निहितो मृत्यु: कर्त्तव्यो धर्मसंग्रह: ।। 
यह शरीर नाशवान है, धन संपत्ति भी चलायमान हैं, मृत्यु सैदव निकट रहती है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को धर्मानुकूल ही कार्य करना चाहिए ।(Chanakya Neeti १०१) भारत को दिया एक अरब डॉलर का कर्ज ब्रिक्स बैंक ने

102. साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधव: । 
कालेन फ़लते तीर्थं सद्यः साधुसमागम: ।। 
सज्जन पुरुष के दर्शन से तीर्थ के समान पुण्य प्राप्त होता हैं, तीर्थाटन समय के अनुसार फल देता है, परन्तु साधुओं की सत्संगति करने से ही मन की सभी आशाएं तत्काल पूर्ण हो जाती है ।(Chanakya Neeti १०२) 

103. नाहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत् । 
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते ।। 
बुद्धिमान व्यक्ति को भोजन के सम्बन्ध में चिंता नहीं करनी चाहिए, उसे केवल धर्म का ही चिंतन करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य के भोजन का प्रबंध तो उसके जन्म के साथ ही हो जाता है।(Chanakya Neeti १०३)  Chanakya Niti, चाणक्य नीति श्लोक हिंदी अनुवाद :- भाग-5 :- 81 से 100
104. जलबिन्दुनितापेन क्रमशः पूर्यते घट: । 
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च ।। 
जिस तरह बूंद-बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है, उसी प्रकार लगातार एकत्रित करते रहने से धन, विद्या और धर्म की प्राप्ति होती है।(Chanakya Neeti १०४) 

105. धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽति गम्भीरता । 
आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञानता रूपे सुन्दरता शिवे भजनता सत्स्वेव संदृश्यते ।। 
धर्म में निरंतर लगे रहना, मुख से मीठे वचन बोलना, दान देने में उत्सुक रहना, मित्र के प्रति भेद-भाव न रखना, गुरु के प्रीत नम्रता और ह्रदय में गंभीरता, आचरण में पवित्रता, अच्छे गुणों के ग्रहण करने में रूचि, शास्त्रों का विशेष ज्ञान, रूप में सौन्दर्य और प्रभु में भक्ति का होना आदि गुण सज्जन पुरषों के लक्षण होते है।(Chanakya Neeti १०५) 

106.  मुहूर्तमपि जीवेच्च नर: शुक्लेन कर्मणा । 
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना ।। 
मनुष्य यदि एक मुहूर्त यानि कुछ पलों का जीवन मिले तो भी उसे उत्तम कार्य करना चाहिए, जबकि इस लोक-परलोक में कुकर्म करते हुए हजारों वर्ष जीना भी व्यर्थ है।(Chanakya Neeti १०६) 

107. वयस: परिणामेऽपि य: खल: एव स: । 
सुपुक्वमपि माधुर्यं नोपयातिन्द्रवारुणम् ।। 

जो व्यक्ति दुष्ट है, वह परिपक्व हो जाने पर भी दुष्ट ही रहता है। जिस प्रकार इंद्रायण का फल पाक जाने पर भी मीठा नहीं होता, कड़वा बना रहता है।(Chanakya Neeti १०७) 

108. धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते । 
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ।। 
जिसके पास धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से एक भी पुरुषार्थ नहीं होता उसका जीवन, बकरी के गले में लटकते हुए स्तनों के समान निरर्थक होता है।(Chanakya Neeti १०८)  कार्ति की याचिका खारिज मामला स्थानांतरित करने को…

109. मातृवत् परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत् । 
आत्मवत् सर्वंभूतानि य: पश्यति स पश्यति ।। 
जो व्यक्ति दूसरी स्त्रियों को माता के समान, दूसरों के धन को मिट्टी के ढेले के समान समझता है और संसार के सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, वही सत्य को देखता है।(Chanakya Neeti १०९) 

110. दह्यमाना: सुतिव्रेण नीचा: पर-यशोऽगि्नना । 
अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते ।। 
नीच मनुष्य दूसरे के बढ़ते यश को देखकर उससे जलते हैं, और जब उस पद को प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं, तब उस व्यक्ति को निंदा करने लगते हैं।(Chanakya Neeti ११०) 

111. बन्धाय विषयाऽऽसक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मन: । 
मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो: ।। 
मनुष्य अपने विचारों का दास है, मनुष्य अपने विचारों के कारण ही बंधनों में फंसता है, उसी के कारण स्वयं को बंधनों से मुक्त समझता है। विषय-वासनाओं से मुक्त होकर ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है।(Chanakya Neeti १११) अतिवृष्टि को यज्ञ द्वारा कैसे रोका जा सकता है ?

112. देहाभिमाने गलिते विज्ञाने परमात्मनि । 
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधय: ।। 
अपने शरीर से अभिमान के नष्ट हो जाने पर और स्वयं को परमात्मा से युक्त जान लेने के बाद मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहां-वहां उसे समाधि का अनुभव होता है। अर्थात् परमतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य को जागृत अवस्था में भी समाधि का अनुभव हो जाता है।(Chanakya Neeti ११२) 

113. राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठा: पापे पापा: समे समा: । 
राजानमनुवर्तन्ते यथा राज तथा प्रज्ञा: ।। 
धर्मात्मा राजा की प्रजा भी धार्मिक आचरण करती है और राजा के पापी होने पर प्रजा भी पापी हो जाती है। यदि राजा उदासीन है तो प्रजा उदासीन हो जाती है, क्योंकि प्रजा राजा के अनुरूप ही आचरण करती है।(Chanakya Neeti ११३) MSME की परिभाषा जल्द बदल जाएगी- गडकरी

114. एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाभिवन्दति । 
श्वान्योनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते ।। 
एक अक्षर का भी ज्ञान देने वाले गुरु को जो व्यक्ति प्रणाम नहीं करता, वह कुत्ते की योनी में सौ बार जन्म लेने के बाद भी नीच योनियों में जन्म लेता है।(Chanakya Neeti ११४) 

115. यथा धेनुसहस्त्रेनु वत्सो गच्छति मातरम् । 
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।। 
जैसे हजारों गायों के मध्य में खड़ा बछड़ा केवल अपनी माँ के ही पास जाता है, उसी प्रकार करता के द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह करने वाले के पीछे-पीछे चलता है।(Chanakya Neeti ११५) 

116. अनवस्थितकार्यस्य न जने न वने सुखम् । 
जने दहति संसर्गो वने संगविवर्जनम् ।। 
अव्यवस्थित काम करने वाले को न तो समाज में, न ही जंगल में सुख मिलता है। समाज में मनुष्यों का संसर्ग उसे दुखी करता है, जबकि जंगल में उसे अकेलापन खलता है ।(Chanakya Neeti ११६) 

117. जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । 
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः ।। 
जल में तेल, दुष्ट व्यक्तियों में गुप्त बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान, बुद्धिमान का शास्त्रज्ञान-अपनी शक्ति से स्वयं इनका विस्तार हो जाता है।(Chanakya Neeti ११७) 

118. धर्माऽऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत् । 
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात् ।। 
धार्मिक कथा सुनने पर, श्मशाम भूमि में और रोगी होने पर मनुष्य के मन में जिस प्रकार वैराग्यभाव उत्पन्न होता है, यदि वह सदैव रहे तो मनुष्य संसार के बंधनों से मुक्त हो सकता है।(Chanakya Neeti ११८) 

119. उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशि । 
तादृशी यदि पूर्वं स्यात् कस्य न स्यान्महोदय: ।। 
पाप करने के बाद पश्चाताप करने वाले मनुष्य की बुद्धि जिस प्रकार की होती है, यदि वैसी सोच पाप करने से पहले हो जाएं तो भला किसे मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती?(Chanakya Neeti ११९) Alok Aarya/Prabhat BLOG’S यथार्थ भारत जागरण yatharthbharatjagran

120. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्। 
मूढै: पाषाणाखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधियते ।। 
इस पृथ्वी पर तिन ही रत्न हैं- जल, अन्न और मधुर वचन । परन्तु मूर्ख मनुष्य पत्थर के टुकड़े को ही रत्न मानते है।(Chanakya Neeti १२०)

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