समान रूप से विकास हमेशा से परिवर्तनकारी रहा है। फिर भी समानता का विस्तृत विचार भावुक बहसों का विषय बना हुआ है। पिछली सदी के आठवें दशक में शुरू हुई देश की सामाजिक सुरक्षा प्रणाली ग्रामीण केंद्रित है, जो केवल गरीबों के लिए तैयार की गई थी और अब अप्रासंगिक हो चुकी है। वर्ष 2020 का भारत काफी अलग है। गरीबी वाकई में देश के सामने एक बड़ी चुनौती है, लेकिन असुरक्षा उससे भी बड़ी चुनौती है। प्रवासी श्रमिक, असंगठित क्षेत्र के श्रमिक, शिक्षित परंतु बेरोजगार युवा और किसान जो प्रकृति की अनिश्चितताओं पर निर्भर हैं, वे सभी असुरक्षित हैं। उन्हें एक व्यापक सुरक्षा जाल की आवश्यकता है। भारत फीकी करेगा चीन के मेंथा क्रिस्टल बाजार की चमक

भारत वर्तमान में सामाजिक सुरक्षा पर अपने जीडीपी का तीन प्रतिशत से भी कम खर्च करता है। और यह खर्च भी सही तरीके से नहीं किया जाता है, साथ ही इसके लक्ष्य भी अव्यवहारिक हैं। सामयिक मजबूती प्रदान करने की कवायद इस सुरक्षा जाल से हासिल होने वाले महत्वपूर्ण सामाजिक परिणामों में वृद्धि करता है, साथ ही समाज में अपराध की दर को कम करता है। करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर निकालने और वंचितों को अपनी क्षमता का पूरा उपयोग करने में मदद करने के लिए यह अब तक का सबसे शक्तिशाली साधन है। व्यापक कवरेज, कार्यान्वयन, निगरानी, मूल्यांकन और तैयारियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए 12 भौगोलिक क्षेत्रों तथा 350 जिलों में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि प्रभावी कार्यान्वयन और राजनीतिक इच्छाशक्ति इसके महत्वपूर्ण पहलू हैं। यह अध्ययन इस बात को उजागर करता है कि गरीबी कम करने में सामाजिक सुरक्षा जाल की अहम भूमिका होती है और परिस्थितियों तथा वितरण क्षमता के आधार पर यह 15 से 25 प्रतिशत तक हो सकता है। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि कई बार सार्वजनिक खर्च पर जितनी मेहनत की जाती है, परिणाम उसके अनुरूप नहीं आते हैं। हालांकि कार्यक्रम के डिजाइन में सामयिक बदलाव करते हुए नीति निर्धारक इस प्रतिकूल स्थिति से बच सकते हैं।

सामाजिक पोषण: असमानता कई बीमारियों को जन्म देती है। ऐसे में नीति निर्माताओं को विशेष रूप से विकास पर पड़ने वाले इसके प्रभावों के बारे में चिंतित होना चाहिए। संबंधित अध्ययनों से एक दिलचस्प समीकरण का पता चलता है। गरीबों के बटुए में रखा एक अतिरिक्त रुपया अर्थव्यवस्था में 20 प्रतिशत मल्टीप्लायर का काम करता है, जबकि यही एक अतिरिक्त रुपया जब अमीरों की तिजोरी में जाता है, तो 20 प्रतिशत धन की कटौती होती है। अधिकांश गरीब खराब स्वास्थ्य से पीड़ित हैं और श्रम भागीदारी को कम करते हैं। साथ ही उत्पादकता को घटाते हैं तथा उत्पादन को कम करते हैं। कई अन्य परिणाम स्थिति को बिगाड़ते हैं। असमानता आंतरिक शांति के लिए खतरा होने के साथ वित्तीय अस्थिरता बढ़ाती है।आर्य निर्मात्री सभा का इतिहास Arya Nirmatri Sabha

गरीबी की कीमत: गरीबी की राजनीतिक लागत कहीं अधिक चौंकाने वाली है। यह प्रशासनिक संस्थानों तथा लोकतंत्र में जन आस्था को कम करती है। दुर्भाग्यवश कई नीति निर्धारक गरीबी और व्यापार चक्र के बीच के उलटे सह-संबंध को नहीं मानते हैं। सामाजिक सुरक्षा जाल व्यवसाय को बढ़ाता है। यह गरीबों के प्रयोज्य आय को बढ़ाता है और कई बार अनुकूल परिस्थितियों में आय को दोगुना कर देता है। यह आर्थिक मंदी (महामारी) के दौरान विकास का एक बड़ा संवाहक है, जो मंदी की गंभीरता को कम करता है। सामाजिक पोषण एक अनुकूल चक्र को बढ़ावा देता है। यह एक ऐसा मुख्य स्नोत है जो स्व-नियमन के जरिये आíथक स्थिति को स्थिरता देता है, अवसरों में वृद्धि करता है और रोजगार एवं समग्र मांग को सृजित करता है। यह श्रम की कार्यक्षमता में सुधार लाता है, जो कर्मचारियों तथा नियोक्ताओं दोनों को फायदा पहुंचाता है और अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देने के लिए मंच का निर्माण करता है। 

सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ वंचितों यानी छोटे किसानों, प्रवासी मजदूरों व बेरोजगारों को अवश्य मिलना चाहिए। विशेष रूप से महिलाओं, वृद्धों और दिव्यांगों को जिन्हें गरिमापूर्ण जीवन नहीं मिल पाता है। एक अध्ययन से पता चलता है कि इन कार्यक्रमों को लागू करने में जितना महत्वपूर्ण कार्यान्वयन और इच्छाशक्ति का होना है, उतना ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम का डिजाइन भी है। उदाहरण के लिए बिहार में मासिक नकद हस्तांतरण प्रभावपूर्ण है, लेकिन गुजरात में कम राशि होने के बावजूद एकमुश्त वार्षकि हस्तांतरण अधिक प्रभावी है। विधानमंडल का मानसून सत्र, फिजिकल डिस्टेसिंग का पालन होगा

नीति निर्माताओं द्वारा इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि गरीबी लगातार केंद्रित होती जा रही है, खासकर पिछड़े क्षेत्रों और जिलों में। संस्थागत कमजोरियां इसका कारण और प्रभाव दोनों हैं। संस्थागत कमियां अनपेक्षित परिणामों और कम होते प्रतिफल में साफ दिख जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में अनुदान कम हो जाता है। समझना होगा कि इस तरह से गरीबी को खत्म नहीं किया जा सकता है। विश्व में गरीबों की सबसे अधिक संख्या अभी भी भारत में है जो लगभग 10 करोड़ है। इनमें से अधिकांश को स्वच्छ पेयजल व स्वास्थ्य सेवा जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। इनकी स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही है। 

सामाजिक विकास और सहभागी प्रशिक्षण — Vikaspedia

राजनीतिक इच्छाशक्ति: देश में आíथक असमानता हमेशा से परेशानी का सबब रही है और यह निरंतर बढ़ भी रही है। ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट कहती है कि सबसे धनी एक प्रतिशत व्यक्तियों के पास 40 प्रतिशत से अधिक राष्ट्रीय संपत्ति है, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत लोगों के पास तीन प्रतिशत से भी कम राष्ट्रीय संपत्ति है। इस असंतुलित विकास ने 92 प्रतिशत भारतीयों को धन पिरामिड के निचले स्तर पर छोड़ दिया है। जैसे-जैसे हम अमीर होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे हम गरीब भी होते जा रहे हैं। अर्थव्यवस्था के लिहाज से बेहतर रहे वर्षो में भी गरीबों का विकास बहुत धीरे होता है। सरकार के पास ऐसी राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था में होने वाली बढ़त का फायदा हाशिये के लोगों तक पहुंच सके। आखिरकार यह तो कहा ही जा सकता है कि सरकार को स्वयं को कल्याणकारी राज्य के ढांचे में नहीं ढालना चाहिए। इसके विपरीत उसे देश की आíथक गति बढ़ानी चाहिए और समानता के साथ धन के वितरण में संतुलन लाने का प्रयास करना चाहिए। कृष्‍ण के जीवन की वो बातें जिस पर आज भी झूमता है विश्‍व

योजनाओं को ढंग से अमल में लाना आवश्यक: एक हालिया सरकारी अध्ययन गरीबों के लिए बनी बड़े बजट वाली 12 योजनाओं के असफल होने की पुष्टि करता है। यदि गरीबोन्मुखी कार्यक्रमों को तटस्थता के साथ लागू किया जाता तो आज यह जितना अपने लक्ष्य को हासिल कर पाया है, उससे कहीं अधिक हासिल कर सकता था, क्योंकि ये कार्यक्रम ऐसा करने की क्षमता रखते हैं। कहा जा सकता है कि भारत ने सामाजिक कार्यक्रमों की शुरुआत तो सही तरीके से की, लेकिन उत्साह में अनावश्यक रूप से इसका अत्यधिक विस्तार कर दिया। मनरेगा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे कार्यक्रम वास्तव में विकासवादी और यहां तक कि परिवर्तनकारी भी हैं। 

लेकिन आज अधिकांश सुरक्षा जाल और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम कार्यान्वयन की कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, जिससे गरीबी में कमी आने की उम्मीद कम हो जाती है। पीडीएस जैसे कार्यक्रमों में लाभार्थियों की संख्या तो बहुत दर्शाया गया है, लेकिन सब्सिडी के रिसाव कारण गरीबों को जितना लाभ इससे मिलना चाहिए वह मिल नहीं पाता है। इसी तरह से अन्य योजनाएं, जो बेहतर तरीके से लक्षित हैं और जिनका बेहतर तरीके से डिजाइन किया गया है, उन्हें भी कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। मनरेगा के संदर्भ में तो यह स्पष्ट देखा जा सकता है। SC: फाइनल ईयर की परीक्षाओं पर दायर याचिकाओं में सुनवाई पूरी

महामारी ने हमें वह सब सिखा दिया है, जिसे हम गंभीरता से नहीं लेते थे। इसने हमारे श्रम बल की विशेषता और उनकी दुर्दशा पर प्रकाश डाला है। भारत की अर्थव्यवस्था, विशेषकर शहरी व्यवस्था प्रवासी श्रमिकों से संचालित होती है। हमारी श्रम शक्ति अपनी विविधता, स्व-रोजगार और अनौपचारिकता से पहचानी जाती है। श्रम बल की कुल संख्या में 90 प्रतिशत से अधिक अनौपचारिक श्रमिकों की बहुलता देश में सामाजिक सुरक्षा की उच्च संवेदनशीलता और निम्न स्तरों को दर्शाती है तथा ऐसे श्रमिकों के लिए पर्याप्त संस्थागत प्रावधानों की कमी व सामाजिक एजेंसी के नहीं होने की हकीकत बयां करती है। वे अर्थव्यवस्था का बोझ उठाते हैं, उसे स्वच्छ बनाते हैं, उसका निर्माण करते हैं और उसे संचालित करते हैं। वे अपने घरों में लगभग एक लाख करोड़ रुपये (कमाई का एक तिहाई हिस्सा) भेजकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पोषण करते हैं, जिससे चार करोड़ परिवारों का पालन होता है। ऐसे में जब भारत में सामाजिक सुरक्षा की कई नीतियां हैं और सबसे सुरक्षात्मक और निवारक सामाजिक सुरक्षा कानून केवल संगठित अर्थव्यवस्था की सेवा करते हैं, अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र के लिए समíपत सामाजिक-सुरक्षा कार्यक्रम अस्तित्वहीन हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि महामारी ने नागरिकों की स्थिति को दुर्दशा में बदल दिया है। पथरी का इलाज Pathri Ka Ilaaj

सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक वृद्धि के लिए योजनाओं को ढंग से अमल में लाना आवश्यक

भ्रष्टाचार अभी भी व्यय के एक चौथाई हिस्से को हजम कर जाता है। कई बार गरीबोन्मुखी कार्यक्रम खुशहाली को बढ़ाने वाले होते हैं। महिलाओं की तुलना में पुरुष ज्यादा लाभान्वित होते हैं। वंचित वर्ग को कम फायदा मिलता है और अक्सर बिचौलियों द्वारा किसी न किसी तरीके से इनका शोषण किया जाता है। बिचौलिये शोषण के लिए नए उपाय तलाश लेते हैं। राजनेता प्रभाव के बजाय खर्च की गई राशि पर ध्यान केंद्रित करते हैं और हकदारों को नजरअंदाज करते हुए राजनीतिक सत्ता के खेल में सबसे अधिक प्रासंगिक लोगों पर अधिक धन खर्च करने के लिए उत्सुक रहते हैं। ऐसे में इस पूरी प्रक्रिया को ही बदलने की आवश्यकता है। नौकरशाही लोगों को या तो आज्ञापालन या गैर-अनुपालन में संचालित करने का काम कर रही है। यह रवैया सामाजिक इच्छाशक्ति को तोड़ता है, समाज की मूल भावना को खत्म करता है और बिगड़ते नैतिक परिदृश्य को दर्शाता है, जिसे समय रहते समझना और सुलझाना होगा। [मैनेजमेंट गुरु तथा वित्तीय एवं समग्र विकास के विशेषज्ञ] -साभार Alok