प्रजनन और प्रसव में क्या करना चाहिए ?


प्रजनन में क्या करें और क्या ने करें ? 

प्रजनन एक नैसर्गिक क्रिया :- गर्भ के नौ महीने पूर्ण होने पर प्रजनन होता हैं। अज्ञातवश  हमारे देश में प्रजनन की असावधानियों में स्त्रियाँ बहुत रोगग्रस्त होती है । प्रतिवर्ष  हजारों स्त्रियाँ या तो प्रसवकाल में ही मर जाती है या किसी भयंकर प्रसूति रोग से जीवन पर्यंत ग्रस्त रहती हैं ।वेद भाष्य कौन से है और किस भाष्यकार के उत्तम भाष्य है ?

वस्तुत: प्रजनन एक नैसर्गिक क्रिया है । यदि आहार-विहार में विशेषकर गर्भावस्था में प्राकृतिक नियमो का उल्लंघन न हो तो प्रजनन क्रिया भी नैसर्गिक रूप से बिना कष्ट के स्वाभाविक ही सम्पन्न होती है ।इस विषय में नैसर्गिक जीवन बितानेवाली आदिवासियों और किसानो की परिश्रमशील स्त्रियों का उदाहरण ध्यान देने योग्य है । वे प्राय: प्रथम प्रसव में भी चलते-फिरते और काम करते-करते बिना किसी की सहायता के जंगल में ही बचे को जन्म देती हैं और दुसरे दिन फिर ज्यों के त्यों काम करने लगती हैं । उन्हें कभी कोई गर्भाशायिक प्रसूति रोग होते प्राय: नहीं देखा गया। इसका मुख्य कारण यही है कि उनका जीवन परिश्रमपूर्ण होता हैं । कैलास मानसरोवर का दर्शन, भारतीय सीमा से भी हो सकता है
परन्तु आजकल विशेषकर शहरी क्षेत्र में स्त्रियाँ अपना घरेलू कम-काज का आवश्यक परिश्रम भी नहीं करती और आहार-विहार में अनियमित रहती हैं । इसी कारण उनका प्रसव भी कष्टकर और कठिनाई पूर्वक होता है। यदि सामान्य जीवन में वे अपने घर का काम-काज पाने हाथो से करके उचित परिश्रम करती रहे और गर्भावस्था में पौष्टिक आहार, शुद्ध जलवायु और पर्याप्त विश्राम का सेवन करें तो उन्हें भी न तो प्रसव-कष्ट उठाना पड़े और न किसी प्रसूति रोग का शिकार होना पड़े । प्रथम प्रसव में सामान्यत: अधिक कष्ट होता हैं ।

प्रजनन में उपयोगी नियम

प्रजनन के सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय परम्पराएँ और आयुर्वेदिक नियम ध्यान देने योग्य है। प्रजनन के लिए प्रसूति-गृह बहुत साफ होना चाहिए जिसमें मिट्टी, धूल या बालू के कण न हो। उसकी बनावट ऐसी हो कि वह सहित, वर्षा और ग्रीष्म सब ऋतुओं में निवास योग्य हो । गृह का मुख्य द्वार उत्तर या पूर्व दिशा में होना चाहिए जुस्से सूर्य का प्रकाश उसमें आ सके । सभी  आवश्यक वस्तुएं प्रसूति-गृह में रहना चाहिए । अग्नि और जल निरंतर रहना चाहिए । प्रसूता के लिए पलंग, बिछौने, ओढने और पहनने के कपड़े बहुत स्वच्छ होना चाहिए । प्रसूता की परिचर्या कार्य में उपयुक्त पाव्र और वस्त्र भी धुले हुए होना चाहिए । प्रसूता की परिचर्या में लगनेवाली दाई और अन्य स्त्रियाँ भी साफ़ कपडे पहनकर अच्छी तरह हाथ-पैर धोकर प्रसूतिगृह में जावे । ऐसी बूढी और अनुभवी स्त्री प्रसूता के पास अवश्य रहनी चाहिए जिसको अनेक बार के प्रसव का ज्ञान हो । खुजली के उपाय सभी चर्म रोगों का एक झटके में सफाया कैसे करें ?

प्रसव के लक्षण

प्रसव एक ऐसा ऑपरेशन है जो बिना शास्त्र के होता है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की प्रसव के समय बहुत धैर्य रहना चाहिए और गर्भ को स्वयंमेव ही बाहर निकलने देना चाहिए और गर्भ को बलात निकालने  की चेष्टा नहीं करती चाहिए ।

जब प्रसव का समय निकट आता है तो गर्भवती स्त्री को अनायास थकान, क्षीणता, बार-बार मल-मूत्र करने की हाजत मालूम होती है । आँखे बाहर को आती-सी लगती है । मुंह में फेन आने लगता है । कुक्षी शिथिल हो जाती है । पेडू का निचला भाग भारी हो जाता है । पेट, कमर, तरेट  और उसके दोनों जांघो के जोड़ो में और हृदय में वेदना अनुभव होती है। योनी में स्फुरण होता है और साव बहने लगता है । फिर पीरें आती है और गर्भोदक बहने लगता है। गर्भोदक बहने से गर्भ के बाहर आने और अपर निकलने तक की तीन स्थितियां प्रसूता के लिए बहुत गंभीर होती । उन तीनों के बीच प्रसूता को क्षणिक विश्राम और देने के लिए काफी घीं में बनी गर्म-गर्म पतली लप्सी पिलाना चाहिए। लप्सी पिलाने से गर्भ नीचे की ओर खिसकता है और लप्सी गर्म तथा स्निग्ध पेय होने से वह प्रसूता की थकान को हरण करती है । विदुर नीति (Vidur Niti) प्रमुख श्लोक एवं उनकी व्याख्या

प्रसव दौरान क्या करें और क्या न करें ?

प्रसूता को बिना वेदना के गर्भ को बाहर निकलने के लिए जोर नहीं लगाना । जब वेदना उठे तब ही जोर लगाना चाहिए । जब सिर नीचे आ जावे तब साधारण जोर से प्रवाहण  करना चाहिए । जब गर्भ योनी-मुख में आ जावे तब उस समय तक पुरे जोर के साथ प्रवाहण करना चाहिए जब तक सारा बच्चा बाहर न आ जावे ।

सामान्यत: गर्भ  बाहर आ जाने के दस-बीस मिनट बाद अपर अपने-आप बाहर आ जाती है । इतने समय बाद भी उपर न निकले तो प्रयत्न करके निकलना चाहिए । इसके साथ ही शिशु की और भी ध्यान देना चाहिए गर्भ के निकालते ही शिशु कुछ मुर्छित-सा होता है तथापि स्वयं रोग है। यदि न रोये तो उसे रुलाने का उपक्रम करना चाहिए। उत्पत्ति के कुछ देर बाद जब नाभिनाल का स्पन्दन बंद हो जावे तो नाभि से दो इंच लबाई पर एक इंच के अंतर से दो सूत के बंधन से बंधना चाहिए और दोनों के बीच में नाभिनाल को स्वच्छ शस्त्र से काट देना चाहिए। नाभि पर हल्दी  चूर्ण डालकर पट्टी बांध देनी चाहिए। शिशु को सावधानी से साफ़ कर स्वच्छ कपडे से ढक कर रखना चाहिए। माता के लिए भी हल्दी का पिचु गर्भाशय के मुख पर रखना ।

प्रसौपरांत गर्भाशय की सफाई का कार्य प्राकृतिक रूप से होता है । गर्भ के उपरांत जो तरल रस निकलता है वह स्वयं बहुत कीटाणुनाशक  होता है तथा गर्भाशय और योनी मार्ग को धोकर वसंक्रमित करता हैं । इस प्राकृतिक सफाई में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए अर्थात् प्रसवोपरांत निकलने वाले रक्त को सम्पूर्णत: निकल जाने देना चाहिए । बड़ा मंगल क्यों मनाया जाता है और क्या है इसका ऐतिहासिक महत्व

प्रसव कर्म के उपरांत प्रसूता के अंगो को साफ़ करने में कदापि गंदे वस्त्रों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ठंडा पानी भी प्रयोग में नहीं लाना चाहिए । तीखी और सीधी हवा से बचाव रखना चाहिए । प्रसवोपरांत ग्रिह्यांगो, शरीर और वस्त्रादि की पूर्ण स्वच्छता का बहुत ध्यान रखना चाहिए । प्रसूता को अजवान आदि की धूनी देनी चाहिए और प्रसूतिगृह में भी राल-गूगल, गंधक आदि जलाकर विसंक्रमण करना चाहिए ।

प्रजनन के उपरांत प्रसूता और शिशु को क्या दे

प्रसव के बाद प्राय: प्रसूता को वायु अधिक रहती है, ऐसी दशा में प्रथम तीन दिन तक वायु शामक पदार्थ ही उसे खिलाना चाहिए । प्रथम तीन से पांच दिन तक कोई गरिष्ठ पदार्थ नहीं देना चाहिए । केवल दूध और दशमूल का काढ़ा 3 दिन पिलाने से प्रसूत सम्बन्धी कोई रोग नहीं होता । फिर प्रसूता को गृह-घी आदि में बना हरीरा पिलाना चाहिए । डेढ़ मास तक प्रसूता के लिए आहार-विहार विश्राम के नियमों का कड़ाई से के साथ पालन करना चाहिए । इन सब में खोई शक्ति को पुन: प्राप्त करने के लिए प्रसूता को पर्याप्त पौष्टिक भोजन देना और दशमूल क्वाथ का विधिवत् सेवन कराना चाहिए ओर्पेट पर पट्टी बांधना चाहिए । HC आरोग्य सेतु ऐप की अनिवार्यता के खिलाफ याचिका, इनकार…

प्रथम तीन दिन तक माता का दूध बच्चे को नहीं पिलाना चाहिए । गाय के दूध में चौगुना पानी तथा तालमिश्री  या ग्लूकोज मिलाकर देना अच्छा हैं ।

P स्त्रियों की विडम्बना 

शहरी क्षेत्र में आधुनिक सभ्यता के प्रसार में स्त्रियाँ का झो घरेलू काम-काज छूट गया है, वह भी स्त्री-रोगों की वृद्धि कर रहा है। इसलिए स्वस्थ रहने की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को यह चाहिए कि वे भारतीय संस्कृति के अनुसार ही जीवनक्रम बनावे । घर की स्वच्छता, भोजन बनाना, थोड़ा-बहुत आटा पिसना-इतना परिश्रम का काम यदि स्त्री करती रहे तो उसका स्वास्थ्य भलीभांति सुरक्षित रह सकता हैं ।

स्त्री-जीवन का सर्वोपरि महत्व संतान के पालन-पोषण में है । माताएं अपने शिशु को शैशवावस्था में ही स्वस्थ रखने का ध्यान रखे तो जीवन भर के लिए स्वास्थ्य की अच्छी निंक पद जाती हैं । शारीरिक निर्माण के अतिरिक्त माता संतान में अच्छी आदतें डालने का कार्य सबसे उत्तम कर सकती है। बच्चो की प्रारंभिक शिक्षा का कार्य भी माता को घर में करना चाहिए । दान देने वालों को मिलेगी इनकम टैक्स में छूट…

घर की व्यवस्था, घर के सामान की सुरक्षा, आय-व्यय का हिसाब किताब रखने के अलावा सबसे बड़ा काम हो घर मने स्त्री कर सकती है वह घर के सभी प्राणियों की स्वास्थ्य रक्षा का है। बीमार की सेवा और परिचर्या पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक सफलतापूर्वक कर सकती हैं। जब घर में कोई बीमार हो तो स्वाभाविक रूप से भावुक होने के कारण स्त्री को ऐसा भाव कभी नहीं दीखान चाहिए कि जिन,में रोगी यह समझे कि वह भयंकर रूप से बीमार है। विशेषकर जब घर में कोई बच्चा बीमार होता है।  यह  उचित नहीं। ऐसा करने से रोगी के मन पर दुखकारक प्रभाव पड़ता है और उसका रोग जटिल बनता है ।
घर सेवा में सबसे अधिक निपुण स्त्री स्वयं के स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होती है । उन्हें निज का स्वास्थ्य ठीक करने के परि भी सावधान रहना चाहिए । प्राय: हमारे घरों में स्त्रियाँ बचा-खुचा और अधिकतर बासी भोजन खाती है । यह बड़ा दोषपूर्ण है। भोजन में घी-दूध आदि पौष्टिक तत्व जितने पुरुष के लिए आवश्यक है, उससे कुछ अधिक ही स्त्री के लिए भी जरुरी है। इसलिए भोजन में बचा-खुचा, जूठा-बासी खाने की आदत का परित्याग करना चाहिए । सद्गृहस्थ की स्त्रियाँ स्वभाव से कुछ कृपण होती है परन्तु उन्हें अपने भोजन में ही कृपणता नहीं करनी चाहिए । संतुलित भोजन से ही स्वास्थ्य और सौन्दर्य बनता हैं । -आलोक प्रभात 

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