विदुर नीति (Vidur Niti) प्रमुख श्लोक एवं उनकी व्याख्या

विदुर नीति श्लोक हिंदी अनुवाद :- 


विदुर नीति :- द्वा:स्थं प्राह: महाप्राज्ञो महीपति: । 
विदुरं द्रष्टुमिच्छामि तमिहानय मा चिरम् ।। 
महाराज घृतराष्ट्र ने द्वारपाल से कहा कि मैं महात्मा विदुर को देखना चाहता हूँ अर्थात् मिलना चाहता हूँ, उसे यहाँ ले आओ, विलम्ब मत करो ।(विदुर नीति १) चित्तौड़ की रानी वीरा का निर्भीक आक्रमण

2. यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे । 
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ।। 
जिस व्यक्ति के भविष्य में  करने योग्य कर्म को, विचार को और निश्चय किये गए तत्व को शत्रु लोग नहीं जानते, केवल किये गए कर्म को ही जानते हैं, वहीँ पण्डित कहलाता है ।(विदुर नीति २)

3. क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् । 
नासंपृष्टो व्युपयुड़्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ।। 
जो व्यक्ति शीघ्र संकेतमात्र से जान लेता है, दूसरे की बात चिरकाल तक सुनता है, और अर्थ की कामना से उनका सेवन नहीं करता, यही पण्डित का मुख्या चिन्ह हैं।(विदुर नीति ३) यह कैसी ‘ममता’ है ममता की?

4.  अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्र श्च महामना: । 
अर्थश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधै: ।। 
जो व्यक्ति ज्ञानरहित होकर भी उद्धत है, दरिद्र होकर भी बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं करता है, ओर बिना कर्म किये अथवा अनुचित कर्मों से एश्वर्य को प्राप्त करना चाहता है, ओत मूर्ख है, ऐसा पण्डितों द्वारा कहा जाता है अर्थात् पण्डितजन उसे मूर्ख कहते है ।(विदुर नीति ४)

5.  अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । 
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ।।
जो व्यक्ति अमित्र अर्थात् मित्र बनने के अयोग्य को मित्र बनाता है। और मित्र बनाने योग्य से द्वेष करता है तथा उसका नाश करता है और दुष्ट कर्म करता है, उसे मूर्ख कहते है ।(विदुर नीति ५)

6. संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते । 
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ।। 
हे भरत कुल में श्रेष्ठ! जो कार्यों को फैलाता है, अर्थात् स्वयं न करके भृत्यों के द्वारा करवाता है, सबके प्रति संदेह करता है और शीघ्र करने योग्य कार्यों में विलम्ब करता है वह मूर्ख कहलाता है ।(विदुर नीति ६)

7.  अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते । 
अविश्र्वस्ते विश्र्वसिति मूढचेता नराधम: ।। 
जो पुरुष सभा आदि में बिना बुलाए प्रविष्ट होता है और बिना पूछे बहुत बोलता है तथा विश्वास के अयोग्य पुरुषों में विश्वास रखता है, वह मूर्ख चित्तवाला नरों में अधम है ।(विदुर नीति ७)

8.  एक: पापानि कुरुते फ़लं भुड़्क्ते महाजनः । 
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते ।। 
अकेला भी जो पाप करता है उसका फल राष्ट्र भोगता है। भोगने वाले तो मुक्त हो जाते हैं, परन्तु वह कर्ता पाप से लिप्त हो जाता है अर्थात् चिरकाल तक राष्ट्र उसको राष्ट्रद्रोही के रूप में स्मरण करता रहता है ।(विदुर नीति ८) एक योग नहीं लगने देगा कोई रोग…
9. एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते । 
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लव: ।।
विष एक को ही मरता है जो उसे पिता है, शास्त्र से भी एक ही व्यक्ति मारा जाता है, परन्तु मंत्र का प्रकट हो जाना राष्ट्र और प्रजा सहित राजा को नष्ट कर देता है ।(विदुर नीति ९)

10.  सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम् । 
क्षमा गुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषण क्षमा ।। 
क्षमा को दोष नहीं मानना चाहिए, निश्चय ही क्षमा परम बल है। निर्बल मनुष्यों का क्षमा गुण और बलवानों का क्षमा भूषण है ।(विदुर नीति १०) पेट की गैस का आयुर्वेदिक दवा से रामबाण इलाज कैसे करें ?

11. द्वामौ ग्रसते भूमि: सर्पो बिलशयानिव । 
राजानं चाविरोद्धारं ब्राहम्णं चाप्रवासिनम् ।। 
जो राजा शत्रु का विरोध नहीं करता अर्थात् निर्बल है और जो ब्राहमण अर्थात् संन्यासी यात्रा=भ्रमण नहीं करता, उसको भूमि उसी प्रकार निगल लेती है जैसे चूहों को सर्प निगल लेता है, खा जाता है, नष्ट कर देता है ।(विदुर नीति ११)

12.  त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: । 
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ।।
काम, क्रोध और लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार है और आत्मा का नाश करने वाले हैं, इसलिए इस तीनों को छोड़ देना चाहिए ।(विदुर नीति १२)  

13.  चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे । 
वृद्धो ज्ञातिरवसन्न: कुलीन: सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ।। 
हे ज्येष्ठ भ्रात:! गृहस्थधर्म में वर्तमान धानवान्य से परिपूर्ण तुम्हारे घर में चार अवश्य रहें-एक अपनी सम्बन्धी कोई वृद्ध पुरुष, दूसरा दुखी कुलीन पुरुष, तीसरा दरिद्र सखा और चौथा पुत्र रहित बहिन ।(विदुर नीति १३)
14.  पञ्चाग्नयो  मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत: । 
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ।। 
हे भरत श्रेष्ठ! मनुष्य को चाहिए कि पिता, माता, गुरु, आत्म और अग्नि इन पांच अग्नियों का प्रयत्नपूर्वक सेवन करे ।(विदुर नीति १४)

15.  पञ्च त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि । 
मित्राण्य मित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविन: ।।
हे राजन ! तुम जहाँ भी जाओगे-पांच तुम्हारे साथ अवश्य रहेंगे। वे पांच हैं-मित्र, शत्रु, उदासीन, गुरु आदि वृद्ध पुरुष ओर भृत्य आदि ।(विदुर नीति १५)

16.  षड् दोषा पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता । 
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
कल्याण अथवा उन्नति चाहने वाले मनुष्य को निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध आलस्य और प्रमाद ये छ: दोष त्याग देने चाहिए ।(विदुर नीति १६)

17.  षडिमान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे । 
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ।।
जैसे समुन्द्र में टूटी नौका को छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार आगे कहे गये छ: व्यक्तियों को छोड़ देवे-1 न पढ़ाने वाले गुरु को 2. स्वाध्याय न करने वाले को 3. रक्षा न करने वाले राजा को 4. अप्रिय बोलने वाली पत्नी को 5. ग्राम की इच्छा रखने वाले चरवाहे को और 6. वन की इच्छा रखने वाले नई को ।(विदुर नीति १७)

18.  अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च । 
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।। 
हे राजन ! इस जीवलोक के छ: सुख हैं- 1. धन की प्राप्ति 2. सदा स्वस्थ रहना 3. प्रिय भार्या 4. प्रिय बोलने वाली भार्या 5. वश में रहने वाले पुत्र और 6. मनोरथ पूर्ण कराने वाली विद्या। अर्थात्  इन छ: से संसार में सुख उपलब्ध होता है ।(विदुर नीति १८)

19.  षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते । 
चौरा: प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सका: ।। 
विदुर नीति संस्कृत प्रमदा: कामयानेषु यजमानेषु याजका: । 
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिता: ।। 
छ: प्रकार के पुरुष छ: प्रकार के आश्रय पर ही जीवनयापन करते हैं सातवाँ ऐसा नहीं मिलता जो किसी अन्य के आश्रय पर जीवन बिताता हो। चार लोग प्रमादी पुरुष के आश्रय पर आदि जीते हैं, प्रमाद न करें तो चोरों की चोरी करने का अवसर न मिले। रोगियों के आश्रय पर वैध आदि जीते हैं, यदि लोग स्वस्थ रहें तो चिकित्सक का जीवनयापन कठिन हो जायेगा । स्त्रियाँ कामीपुरुषों के आश्रय पर जीती हैं, यदि पुरुष जितेन्द्रिय हो तो दुराचारिणी स्त्रियों की जीविका ही न रहे । यज्ञ करने वालों के आश्रय पर याजक ऋत्विक लोग जीवन यापन करते है यदि यज्ञक्रिया का लोप हो जावे तो ऋत्विक भी न रहें । राजा प्रजा में लड़ाई बखेड़ा होने पर ही जीवन धारण करता हैं यदि मनुष्यों में सदा सौमनस्य होम, किसी प्रकार का विवाद ही पैदा न हो तो राजा की भी आवश्यकता न रहे और मूर्खों के आश्रय विद्वान् जीते है। यदि सभी मूर्ख बुद्धिमान बन जाएं तो विद्वान् की पूछ ही न रहे ।(विदुर नीति १९) गोवध अंग्रेजी शासनकाल से अब तक क्यों और कितना हुआ ?

20.  षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्त्तमनवेक्षणात् । 
गाव: सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसंगति: ।। 
गौवें, सेवा, भृत्यों पर आश्रित कार्य खेती, स्त्री, विद्या और नीच पुरुष की संगति ये छ: थोड़ी देर भी ध्यान न देने से नष्ट हो जाती हैं ।(विदुर नीति २०)

21.  षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् । 
आचार्यं शिक्षिता: शिष्या: कृतदाराश्च मातरम् ।। 
नारीं विमतकामास्तु कृतार्थाश्च प्रयोजकम् । नावं निस्तीर्णकान्तारा आतुराश्च चिकित्सितम् ।। छः प्रकार के व्यक्ति प्राय: करके पूर्व उपकार करने वाले को सदा ही हिन दृष्टि से देखते है । आचार्य को पढ़े हुए शिष्य, माता को विवाहित पुत्र, पत्नी को जिसकी कामेच्छा नष्ट हो गई है वे पुरुष, कार्य में लगाने वाले को जिनका प्रयोजन सिद्ध हो गया है वे, नौका कको जल से पार करते हुए लोग और चिकित्सा करने वाले को आतुर स्वस्थ होकर ।(विदुर नीति २१)

22.  ईर्ष्यी घृणी नसंतुष्ट: क्रोधिनो नित्यशंकित: । 
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदु: खिता: ।। 
ईर्ष्या करने वाला, दूसरों से घृणा करने वाला, असंतुष्ट, क्रोधी, शंकाशील और पराश्रित ये छ: सदा दुःखी रहते है ।(विदुर नीति २२)

23.  नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम् । 
क्षेत्रज्ञाधिषि्ठतं विद्वान् यो वेद स पर: कवि: ।। 
जो विद्वान् नवद्वार वाले, तीन स्थुणा वाले, पांच साक्षियों वाले क्षेत्रज्ञ जीवात्मा से अधिष्ठित धारण किये गए शरीर, रूपी गृह को अच्छे प्रकार जानता है वह श्रेष्ठ ज्ञानी अर्थात् ब्रह्मवित् है ।(विदुर नीति २३)

24.  दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् । 
मत्तः प्रमत्त: उन्मत्त: श्रान्त: क्रुद्धो बुभूक्षित: ।। 
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीत: कामी च ते दश । 
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डित: ।। 
हे घृतराष्ट्र ! दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते उन्हें तुम जानो। वे ये हैं- मद्यपान से मत्त, विषयासक्त मन वाल होने से प्रमत्त, उन्माद आदि रोग से युक्त उन्मत्त, थका हुआ, क्रोध से युक्त, भूखा, शीघ्रता करने वाला. लोभी, डरा हुआ और दसवां कामी । इसलिए पण्डित को चाहिए कि इसने संपर्क न रखे ।(विदुर नीति २४)

25.  पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलश्छेदं न कारयेत् । 
मालाकार इवारामे न यथाड़्गारकारक: ।। 
जैसे माली बगीचे में एक-एक फूल को ग्रहण करता है, मूल से उनका उच्छेद नहीं करता उसी प्रकार प्रजा से कर ग्रहण करें । जिस प्रकार अंगरकरक पेड़ों को समूल नाश करके कोयले बनते है, वैसे प्रजा का समूल उच्छेद न करे ।(विदुर नीति २५)

26.  अष्टौ गुणा: पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दम: श्रुतं चं । 
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ।। 
हे राजन-प्रज्ञा, कुलीनता, इन्द्रिय-दमन, ज्ञान, पराक्रम, मितभाषी होना, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता ये आठ गुण पुरुष को प्रकाशित करते हैं. बढाते हैं ।(विदुर नीति २६) CM योगी की सौगात मजदूर दिवस के अवसर पर 30 लाख श्रमिकों को

27.  न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । 
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति सत्यं न तत् सत्यं यश्छलेनाभ्युपेतम् ।। 
वह सभा=परिषद ही नहीं है जिस में वृद्ध=ज्ञान और वय से वृद्ध पुरुष न हों, वे वृद्ध=ज्ञान और वय से वृद्ध ही नहीं हैं जो धर्म का कथन न करें, न वह धर्म ही है जिस में सत्य का योग न हो और न वह सत्य ही है जो छल से संयुक्त हो ।(विदुर नीति २७)

28.  न श्रद्दधाति कल्याणं परेभ्योऽप्यात्मशड़िकत: । 
निराकरोति मित्राणि यो वै सोऽधमपूरुष: ।। 
जो पुरुष उत्तम कर्मों वा परुषों में विश्वास नहीं रखता, गुरुजनों में भी स्वभाव से ही शंक्ति रहता है, किसी का विश्वास नहीं करता, और मित्रों का परित्याग करता है, वह निश्चय ही अधम पुरुष होता है ।(विदुर नीति २८)

29.  उत्तमानेव सेवेत प्राप्तकाले तु मध्यमान् । 
अधमांस्तु न सेवेत य इच्छेद् भूतिमात्मन: ।।
जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे चाहिए कि वह सदा उत्तम पुरुषों का ही सेवन=संग करे । समय पड़ने पर=अत्यंत आवश्यक होने पर मध्यम पुरुषों का संग करें, परन्तु अधम पुरुषों का संग कभी नहीं करें ।(विदुर नीति २९)

30.  तपो दमो ब्रह्मवित्तं विताना: पुण्या विवाहा: सततान्नदानम् । 
येष्वेवैते सप्त गुणा वसन्ति सम्यग्वृत्तास्तानि महाकुलानि ।। 
जिन कुलों में तप आदि द्वंदों का सहन करना, दम, वेदादि का स्वाध्याय, यज्ञ, श्रेष्ठ विवाह, सदा अन्न का दान और उत्तम आचार ये सात गुण रहते हैं, वे महाकुल कुल कहलाते हैं ।(विदुर नीति ३०)

31.  न तन्मित्रं यस्य कोपाद् बिभेति यद् वा मित्रं शड़िकतेनोपचर्यम् । 
यस्मिन् मित्रे पितरीवाश्वसीत तद् वै मित्रं सड़्गतानितराणि ।। 
वह मित्र नहीं है जिसके कोप से डर लगता हो, अथवा जिससे शंकित होकर व्यवहार किया जाता हो । मित्र वही होता है जिस्मने पिता के समान विश्वास होता है, अन्य तो संगत इकट्ठे हुए साथी मात्र कहलाते हैं ।(विदुर नीति ३१)

32.  बुद्धया भयं प्रणुदति तपसा विन्दते महत् । 
गुरुशुश्रूषया ज्ञानं शान्तिं योगेन विन्दति ।। 
बुद्धि से भय को दूर करता है, तप से महत ब्रह्म एवं योग्य गुरु को प्राप्त होता है, गुरु की सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है और योग से शांति को प्राप्त करता है ।(विदुर नीति ३२) सीतारमण बोलीं, फंसे कर्ज पर देश को गुमराह कर रहे राहुल गांधी

33.  न मनुष्ये गुण: कश्चिद् राजन् सधनतामृते । 
अनातुरत्वाद् भद्रं ते मृतकल्पा हि रोगिण: ।। 
हे राजन ! मनुष्य में धनिकता और रोगी न होने के अतिरिक्त कोई गुण नहीं है। निर्धन रोगी पुरुष मरे हुए के समान होते है ।(विदुर नीति ३३) 

34.  त्यजेद् कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । 
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।। 
मनुष्य को चाहिए की कुल की उन्नति और सुख शांति के लिए एक अहितकारी व्यक्ति को छोड़ देवे उसकी उपेक्षा कर दे, ग्राम की उन्नति व सुख समृद्धि के लिए कुल को छोड़ देवे, प्रदेश के कल्याण के लिए ग्राम को छोड़ देवे और अपनी आत्मा की उन्नति के लिए पृथवी के राज्य को भी छोड़ देवे ।(विदुर नीति ३४) 

35.  दुष्कुलीन: कुलीनो वा मर्यादां यो न लंघयेत् । 
धर्मापेक्षी मृदुर्ह्रीमान् स कुलीनशताद् वर: ।। 
उत्तम कुल में जन्मा या अधम कुल में, जो मनुष्य सीमा का उल्लंघन नहीं करता है, धर्म की अपेक्षा रखने वाला, कोमल-स्वभाव वाला एवं लज्जाशील है, वह सैकड़ों उत्तम कुलोत्पन्न मनुष्यों से श्रेष्ठ है अर्थात् कुल से शील श्रेष्ठ होता है ।(विदुर नीति ३५) 36. ययोश्चत्तेन वा चित्तं निभृतं निभृतेन वा । समेति प्रज्ञया तयोर्मैत्री न जीर्यति ।। जिन दो मनुष्यों का चित्त के साथ चित्त, गुप्त रहस्य के साथ गुप्त रहस्य तथा बुद्धि के साथ बुद्धि मिल जाती है, उनकी मित्रता जीर्ण नहीं होती ।(विदुर नीति ३६)

37.  दु:खार्तेषु प्रमत्तेषु नास्तिकेष्वलसेषु च । 
न श्रीर्वसत्यदान्तेषु ये चोत्साहविवर्जिता: ।। 
जो लोग दुःख से पीड़ित, प्रमादी, नास्तिक, आलसी, असंमयी जन और हतोत्साहित हैं, उनके पास संपत्ति नहीं रहती ।(विदुर नीति ३७)

38.  अक्रोधेन जयेत् क्रोधमसाधुं साधुना जयेत् । 
जयेत् कदर्यं दानेन जयेत् सत्येन चानृतम् ।। 
क्रोध को प्रेम से जीतें,दुष्ट मनुष्य को उत्तम व्यवहार से वश में करें, कृपण मनुष्य को दान के द्वारा वश में करें और असत्य पर सत्य के द्वारा विजय प्राप्त करें ।(विदुर नीति ३८)

39.  अभिवादलशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन: । 
चत्वारि सम्प्रवर्धन्ते कीर्तिरायुर्यशो बलम् ।। 
गुरुजनों का सम्मान करने के स्वभाव वाले तथा सदा अनुभवी वृद्धों की सेवा करने वाले मनुह्स्य के सम्मान, आयु, यश तथा बल ये चारों बढ़ते हैं ।(विदुर नीति ३९)

40.  योऽभ्यर्चित: सदि्भरसज्जमान: करोत्यर्थं शक्तिमहापयित्वा । 
क्षिप्रं यशस्तं समुपैति सन्तमलं प्रसन्ना हि सुखाय सन्त: ।। 
जो सत्पुरुषों से प्रशंसित हुआ अनाशक्त होकर्म शक्ति का उल्लंघन न करके बहुत कार्य करता है, वह श्रेष्ठ पुरुष शीघ्र सुयश को प्राप्त होता है । क्योंकि प्रसन्न हुए सत्पुरुष निश्चय ही कल्याण करने में समर्थ होते है ।(विदुर नीति ४०)

41.  आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च । 
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथात्यागित्वमेव च ।। 
एते वै अष्ट दोषा: स्यु: सदा विद्यार्थिनां मता: ।। आलस्य करना, मदकारी पदार्थों का सेवन , घर आदि में मोह रखना, चपलता-एकाग्रचित न होना, व्यर्थ की बात में समय बिताना, उद्धतपना या जड़ता, अहंकार और लालची होना, ये आठ दोष विद्यार्थी के माने गए है, अर्थात् इन दुर्गुणों से युक्त को विद्या प्राप्त नहीं होती ।(विदुर नीति ४१)

42.  सुखार्थिन: कुतो विद्या नास्ति विधार्थिन: सुखम् । 
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्या विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ।। 
सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ ? विधार्थी को सुख कहाँ ? इसलिए जो सुख की चाहना करने वाला है उसे विद्या की प्राप्ति की इच्छा छोड़ देनी चाहिए अथवा विद्यार्थी को सुख की इच्छा छोड़ देनी चाहिए ।(विदुर नीति ४२)

43.   आत्मा नदी bharat पुण्यतीर्था सत्योदका धृतिकूला दयोर्मि: । 
तस्यां स्नात: पूयते पुण्यकर्मा पुण्यो ह्यात्मा नित्यमलोभ एव ।। 
हे भरतकुलोत्पन्न घृतराष्ट्र! यह आत्मा नदी रूप है, पुण्यकर्म इस में घाट रूप है। सत्य इस नदी का जलस्थानीय है, धृति इसके दो किनारे है, दया लहरें है ऐसी आत्मा रूपी नदी में स्नान करने वाला पुन्यकर्मा मनुष्य पवित्र हो जाता है । लोभ्रहित वैराग्य-ज्ञानयुक्त आत्मा ही पुण्यशील होता है ।(विदुर नीति ४३)

44.  निन्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी पतितान्नवर्जी । 
सत्यं ब्रुवन् गुरवे कर्म कुर्वन् न ब्राह्मणश्च्यवते ब्रह्मलोकात् ।।
नित्य यथा समय स्नान आचमन करने वाला, नित्य अग्निहोत्रादी यज्ञ करने वाला, नित्य स्वाध्याय करने वाला, धर्मादी आचरण से पतित पुरुषों के अन्न, धन आदि से दूर रहने वाला, सत्य बोलने वाला और गुरु का कार्य करने वाला ब्राहमण ब्रह्मलोक से नष्ट नहीं होता ।(विदुर नीति ४४) हिंदी भाषा कैसे हिन्दुस्तानी भाषा बनी सम्पूर्ण इतिहास

45.  उद्योगिनं पुरुषसिहंमुतैपि लक्ष्मी दैवं हि दैवमिति कापुरुषा वदन्ति । 
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः ।। 
उद्योगी पुरुषसिंह को ही लक्ष्मी प्राप्त होता है । देव की रट तो कायर व्यक्ति लगाते हैं। आत्मशक्ति से भाग्य से प्राप्त दोष को नष्ट करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । पुरुषार्थ करने पर भी यदि सिद्धि प्राप्त नहीं होती तब भी हतोत्साहित नहीं होना चाहिए, वहां विचार करना चाहिए कि हमारे पुरुषार्थ में कहाँ क्या दोष रहा, जिस से इष्ट लाभ नहीं मिला । उस दोष को जानकार पुन सिद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार नित्य पुरुषार्थी स्वदोष दर्शन में समर्थ व्यक्ति कभी न कभी अपने इष्ट को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है ।(विदुर नीति ४५) -आलोक आर्य 

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