महान क्रांतिकारी अशफाक़ उल्ला खां का आदर्श जीवन
अशफाक़ उल्ला खां का जन्म 22 अक्टूबर 19,00 में उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर स्थित शाहिदपुर में हुआ |उनके पिता मोहम्मद शफीक अल्ला खान था और उनकी माता का नाम मजहूरून्निशां बेगम था। उनके पिता एक कट्टर मुस्लमान थे ।और एक कट्टर मुसलमान के घर जन्म लेकर भी वह मुसलमान न था। उसके कल्पना -राज्य में हिन्दू-मुसलमान का भेद-भाव न था। वह तो प्रेम का पुजारी था और अंत तक प्रेम का गीत गाते हुए यहां से चला गया। दुनिया के सभ्य समाज ने उसे डाकू तथा हत्यारे के नाम से संबोधित किया। मुसलमानों के समझदार मुल्लाओं ने उसे काफ़िर पुकारा और कुछ सहानुभूति रखने वालों ने कहाँ – वह एके जल्दबाज़ तथा आदेर्शवादी युवक था।
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अशफाक उल्ला खां ने शाहजहांपुर के ही अंग्रजी स्कूल से 9 वी कक्षा तक शिक्षा पाई। सरकारी ऐलान के अनुसार जब श्री रामप्रसाद बिस्मिल जी फिर वापस आ गए तो अशफाक़ उल्ला खां ने उनके पास आना-जाना प्रारम्भ कर दिया। उस समय बिस्मिल ने अशफाक उल्ला खां पर भरोसा न करते हुए इनसे दूरी रखने का प्रयत्न किया । किन्तु खां तो बिस्मिल के साहस और वीरता के कार्य सुनकर पहले से ही उनपर जी जान से मुग्ध हो गए। इस प्रकार बिस्मिल के दूरी बनाने पर भी अशफाक़ उल्ला खां उनसे अलग नही हुए और कुछ ही दिनों में बिस्मिल के दाहिने हाथ बन गए। रामप्रसाद आर्यसमाजी होने के पश्चात भी अशफ़ाक को प्राणों से ज्यादा चाहने लगे। कभी-कभी एक साथ खाना भी खा लेते थे। एक दूसरे को राम और कृष्ण के नाम से पुकारने लगे। अशफ़ाकउल्ला खां को ह्रदय की धड़कन की बीमारी थी। तो कभी दौरा होने पर घंटे भर बोलते रहते थे। Human Brain Science
एक समय अशफाक़ उल्ला खां को दौरा आ गया। उस समय राम नाम लेकर चिल्लाने लगे । माता-पिता ने बहुत समझाया कि अल्लाह को याद करो, क्या राम-राम बक रहे हो? इस पर सभी काफ़िर कहने लगे।”किन्तु इतने में ही एक पड़ोसी आ गया। वह इस राम के राज को जनता था, ओर जाकर रामप्रसाद बिस्मिल को बुला लाया। बिस्मिल को देख थोड़ी देर में दौरा समाप्त हो गया। उस समय अशफ़ाक के घर वालो को राम का पता चला।
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अशफ़ाक के दिल में धर्मान्धता लेशमात्र के लिए भी न थी। उनके समीप मंदिर और मस्जिद में कोई भेदभाव नही था। एक दिन शाहजहाँपुर में ही मुसलमानों में झगड़ा हो रहा था तो आप आर्यसमाज मंदिर में बिस्मिल के पास ही बैठे रहे। मुसलमानों के एक दल को मंदिर पर हमला करने आता देख अशफाक़ उल्ला खां बाहर आ गए और कहा – “मुसलमानों, में मैं एक कट्टर मुसलमान हूँ, किन्तु फिर भी मुझे इस मंदिर की एक-एक ईंट अपने प्राणों से भी प्यारी है। मेरे समीप इसमे तथा मस्जिद में कोई भेद भाव नही है। और यदि तुम्हे मजहब के नाम पर झगड़ा करना है, तो बाज़ार में जाकर लड़ो। यदि किसी ने भी इस पवित्र मंदिर की तरफ आंख उठाई तो मेरी गोली का निशाना बनेगा। यह देख कोई भी मुस्लिम आगे नहीं आया और वापस चले गए।
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उस समय रामप्रसाद बिस्मिल ने काकोरी स्टेशन पर रेल में आ रहे ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटने का इरादा बनाया और इस डकैती को 10 लोगों को टीम ने अंजाम दे डाला। इस डकैती में चंद्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, भगत सिंह, अशफ़ाकउल्ला खां आदि प्रमुख क्रांतिकारी शामिल थे। काकोरी काण्ड के बाद जब चारो ओर धड़-पकड़ शुरू हो गई तो अशफ़ाक उल्ला खां फरार हो गए। जब कुछ लोगो का कहना था कि अशफाक़ उल्ला खां का छिपकर रहना बिल्कुल ही कठिन है। उनका राजकुमारों जैसा ठाठ कहीं भी छिप सकेगा, और जो कोई भी उन्हें देखेगा, उसी की निगाह उन पर अटक जाएगी। हुआ भी यही । आप दिल्ली के एक होटल में ठहरे थे। जहाँ से उन्हें गिरफ्तार कर लखनऊ लाया गया और काकोरी के दूसरे मुक़दमे में अशफाक उल्ला खां की फांसी की सजा सुनाई। दांत की सफाई में पेस्ट या दातुन फायदेमंद है ?जब इस वीर क्रांतिकारी से माफी मांगने के लिए कहा गया तो इस वीर क्रांतिकारी ने कहा- “ख़ुदा-वन्द-करीम के सिवा और किसी से माफी की प्रार्थना करना मैं हराम समझता हूँ।” किन्तु बाद में बिस्मिल जी के अधिक कहने पर आपने माफ़ी की अपील की थी, जो बाद में मंजूर ना हो सकी।
17 दिसम्बर, 1927 को फांसी के पास जाकर तख्ते का बोसा लिया और फिर क़ुरान की आयतें पढ़ते हुए रस्सी से झूल गए।
आजादी के बाद भारत में बहुत कुछ बदला लेकिन नहीं बदले मुस्लिम मन और मुद्दे ?
जब वीर क्रांतिकारी अशफाक़ उल्ला खां का शव फ़ैजाबाद से शाहजहापुर ले जाया रहा था, तो लखनऊ स्टेशन पर सैकड़ो मनुष्यों की भीड़ जमा थी। जिस पर एक अंग्रेजी अखबार के संवाददाता ने लिखा था- “The public of Lucknow thronged at the station to see the last remains of their beloved Ashfaqa and the old men weeping as if they have lost their own son.” जिसका अर्थ था कि ‘लखनऊ की जनता अपने प्यारे अशफ़ाक के अंतिम पुण्य-दर्शनों के लिए बेचैन होकर उमड़ आई थी और वृद्ध लोग इस प्रकार रो रहे थे, मानों उनका पुत्र खो गया हो !”
तंग आकर ज़ालिमों के, ज़ुल्म और बेदाद से।
चल दिए सूए-आदम, ज़िन्दाने फैज़ाबाद से।।
-आलोक प्रभात
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