चाणक्य नीति हिंदी अनुवाद:-
121. आत्माऽपराधवृक्षस्य फ़लान्येतानि देहिनाम् ।
दारिद्यरोगदु:खानि बन्धनव्यसनानि च ।।
दरिद्रता, रोग, दुःख और बंधन तथा व्यसन आदि- ये सब मनुष्य के अधर्म रूपी वृक्ष अर्थात् शरीर के फल है।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२१) CO2 का उत्सर्जन चार दशक में पहली बार हुआ कम…
122. पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्यां पुनर्मही ।
एतत्सर्वं पुनर्लभ्यं न शरीरं पुन: पुन: ।।
धन, मित्र, पत्नी और राज्य को दोबारा प्राप्त किया जा सकता है । ये सब मनुष्य को बार-बार प्राप्त हो सकती है । परन्तु मनुष्य का शरीर बार-बार प्राप्त नहीं हो सकता है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२२)
123. स जीवति गुणा यस्य धर्म: स जीवति ।
गुणधर्मविहीनस्य जीवितं निष्प्रयोजनम् ।।
वास्तव में वही जीवित कहे जाने योग्य है, जिसमें गुण और धर्म उपस्थित रहता है। गुणों और धर्म से हिन् मनुष्य का जीवन व्यर्थ है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२३)
124.यदिच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा ।
परापवादसस्येभ्यो गां चिरन्तीं निवारय ।।
यदि किसी एक ही कर्म से सरे संसार को अपने वश में करना चाहते हो तो दूसरों की निंदा करने वाली अपनी वाणी को वश में करना आवश्यक है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२४)
125. जो व्यक्ति अवसर के अनुकूल बात कर सकता है, जो व्यक्ति अपने यश के अनुकूल प्रिय कार्य कर सकता है। जो अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करता है , वास्तव में वही विद्वान् है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२५)
126. चाणक्य नीति श्लोक एक एव पदार्थस्तु भवति वीक्षित: ।
कुणप: कामिनी मांसं योगिभि: कामिभि: श्वभि: ।।
एक ही पदार्थ को देखने वाले लोग तीन प्रकार से देख सकते हैं। स्त्री को योगी शव के रूप में देखते हैं, कामी लोग कामिनी के रूप में देखते है कुत्ता उसे एक मांस के लोथड़े के रूप में देखता है।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२६)
127. यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु ।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनै: ।।
जिसका ह्रदय सभी जीवों पर दया करने के लिए द्रवित हो जाता है, उसे ज्ञान, मोक्ष, जटाधारण और शरीर पर भस्म लगाने की क्या आवशयकता हैं?(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२७) गुरु जी और चेला साथ रहिये और साथ खाइए कहानी’
128. एकमेवाक्षरं यस्तु गुरु: शिष्यं प्रबोधयेत् ।
पृथ्वीव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद्यत्वा चाऽनृणी भवेत् ।।
जो गुरु अपने शिष्य को एक भी अक्षर का ज्ञान दे देता है, संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिसे गुरु को देकर शिष्य उस गुरु के ऋण से मुक्त हो सके ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२८)
129. सुसिद्धमौषधं धर्मं गृहच्छीद्रं च मैथुनम् ।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत् ।।
बुद्धिमान व्यक्ति को सिद्ध की हुई दवा को, स्वयं किए जाने वाले धर्माचरण को, घर के दोष को, स्त्री के साथ संभोग की बात को, बे-स्वाद भोजन तथा निन्दित वचन, किसी के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १२९)
130. तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलैश्चैव वासरा: ।
यावत्सर्वजनानन्ददायिनी वाक्प्रवर्तते ।।
जब तक वसंत ऋतु नहीं आती, तब तक कोयल मौन रहकर अपने दिन बिता लेती है, अर्थात् वसंत ऋतु आने पर ही कोयल की मधुर कूक सुनाई देती है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३०)
131. पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकश: ।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा ।।
जो लोग वेद शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी आत्मज्ञान से रहित होते हैं, वे उस कलछी जैसे होते हैं, जो स्वादिष्ट व्यंजनों में रहती है, परन्तु उसे स्वाद का ज्ञान नहीं होता ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३१)
132. अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दशवर्षाणि तिष्ठति ।
प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति ।।
गलत तरह से कमाया हुआ धन मात्र दस वर्ष तक आदमी के पास ठहरता है और ग्यारहवां वर्ष प्रारंभ होते ही वह धन समूल नष्ट हो जाता है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३२) मैंगो बाबा और बागवान मित्र आम के लिए ‘आरोग्य सेतु’ होंगे
133. छिन्नोऽपि चन्दनतरुर्न जहाति गन्धं वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम् ।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षु: क्षिणोऽपि न त्यजति शिलगुणान् कुलीन: ।।
कटा हुआ चन्दन का वृक्ष अपनी सुगंध नहीं छोड़ता, बूढ़ा हो जाने पर भी हाथी अपनी क्रीडाएं नहीं छोड़ता, कोल्हू से पेरने के बाद भी ईख अपनी मिठास नहीं छोड़ती। इसी प्रकार कुलीन मनुष्य निर्धन हो जाने पर भी अपनी सुशीलता, शालीनता को नहीं छोड़ता है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३३)
134. न निर्मित: केन न दृष्टपूर्व: न श्रूयते हेममय: कुरड़्ग: ।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धि ।।
न तो सोने के मृग की रचना ईश्वर ने की और न ही किसी नें सोने का मृग देखा। फिर भी भगवान श्री रामचंद्र स्वर्ण-मृग को पकड़ने के लिए दौड़ पड़े अर्थात् जब मनुष्य के बुरे दिन आते हैं, तो उसकी बुद्धि विपरीत बातें सोचने लगती है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३४) फांसी का जन्म और विकास कब और कैसे हुआ ?
135. गुनैरुत्तमतां याति नौच्चैरासनसंस्थिता: ।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काक: किं गरुडायते ।।
मनुष्य अपने उत्कृष्ट गुणों के कारण ही श्रेष्ठता को प्राप्त होता है। मात्र ऊँचे स्थान पर बैठने से श्रेष्ठ नहीं बना जा सकता । राजभवन की ऊँची चोटी पर बैठने से ही कौआ गरुड़ नहीं बन सकता ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३५)
136. गुणा: सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पद: ।
पुर्णेन्दु किं तथा वन्धो निष्कलड़्को यथा कृश: ।।
अच्छे गुणों की सभी जगह पूजा होती है। गुणहीन मनुष्य के पास यदि धन के भण्डार भी हों तो उसे आदर-सम्मान प्राप्त नहीं होता । बहुत थोड़े से प्रकाश वाला, दाग-धब्बों से रहित दूज के चाँद को जिस प्रकार पूजा जाता है, क्या पूर्णिमा के चन्द्रमा को वैसा समान प्राप्त होता है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३६) दान देने वालों को मिलेगी इनकम टैक्स में छूट…
137. पर- प्रोक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणि भवेत् ।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ।।
जिसके गुणों की तारीफ दुसरे लोग करते हैं, वह गुणहीन होने पर भी गुनी माँ लिया जाता हैम परन्तु जो स्वयं अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है तो ऐसे इंद्र को भी छोटा माना जाता है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३७)
138. विवेकिनमनुप्राप्ता गुणा यान्ति मनोज्ञताम् ।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम् ।।
जो व्यक्ति विवेकशील होने के साथ अच्छे विचार भी रखता है, वह रत्नजड़ित सोने के आभूषण के समान पाया जाता है ।(चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३८)
139. अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु ।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवन्तु मे ।।
जो धन दूसरों को कष्ट पहुंचाकर, धर्म विरुद्ध कार्य करके, शत्रु के सामने झुकने से प्राप्त होता है, ऐसा धन मुझे नहीं चाहिए । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १३९)
140. क्षियन्ते सर्वदानानि यज्ञहोमबलिक्रिया: ।
न क्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम् ।।
जीवन समाप्ति के साथ ही सभी प्रकार के दान, यज्ञ, होम समाप्त हो जाते हैं, किन्तु श्रेष्ठ सुपात्र को दिया गया दान और अभयदान कभी नष्ट नहीं होता । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४०) Chanakya Neeti (चाणक्य नीति श्लोक) भाग-6, 101 से 120
141. पुस्तकेषु च य विद्या परहस्तेषु यद्धनम् ।
उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ।।
जो विद्या पुस्तकों में लिखी है, पर आचरण में नहीं है। जो धन दूसरों के पास हैं आवशयकता पड़ने पर न तो वह विद्या काम आती है और न ही वह धन । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४१)
142. प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।
मधुर वचन से सभी प्राणी प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं। अत: व्यक्ति को सैदव मीठा ही बोलना चाहिए, मनुष्य को वाणी से दरिद्र नहीं होना चाहिए । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४२)
143. संसारविषवृक्षस्य द्वे फ़ले अमृतोपमे ।
सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गति सुजने जने ।।
इस संसाररूपी विष-वृक्ष पर दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं, एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४३) भारत को दिया एक अरब डॉलर का कर्ज ब्रिक्स बैंक ने
144. दानेन पाणिर्न तु कड्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन ।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन ।।
हाथ की शोभा कंगन या आभूषण पहनने से नहीं वरन दान देने से होती है, शरीर की शुद्धि स्नान करने से होती है, चन्दन लगाने से नहीं। श्रेष्ठ मनुष्य की तृप्ति आदर-सम्मान से होती है, भोजन कराने से नहीं और मनुष्य को मोक्ष ज्ञान से होता है, श्रृंगार करने से नहीं । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४४)
145. लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यपि किं पातकै: सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यपि तीर्थेन किम्। सौजन्यं यदि किं गुणौ: सुमहिमा यद्यस्ति किं मुण्डनै: सद्विधा यदि किं धनैर्पयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ।।
यदि मनुष्य लोभी है तो उसे किसी अन्य बुराई की आवश्यकता नहीं, यदि व्यक्ति परनिंदक है, तो इसमें बड़ा पाप क्या हो सकता है? यदि किसी के जीवन में सत्याचरण है तो उसे तप करने की क्या आवश्यकता हैं, यदि मनुष्य का मन पवित्र है तो विभिन्न तीर्थों पर जाने से क्या लाभ ? यदि मनुष्य प्रेमी स्वभाव का है तो उसे अन्य गुणों की क्या आवश्यकता हैं? यदि संसार में मनुष्य का यश फ़ैल रहा है तो उसे अन्य किसी आभूषण की क्या आवश्यकता है? यदि उसके पास विद्या है तो उसे किसी अन्य धन की क्या आवश्यकता है? और यदि उसका अपमान और अपयश फ़ैल रहा है तो वह जीते हुए भी मरे के समान हो जाता है। (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४५)
146. आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मोहितेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।
भोजन, नींद, भय और संतान की उत्पत्ति करना- ये सब मनुष्य और पशु में एक समान होती है। पशुओं कि अपेक्षा मनुष्य में ज्ञान अधिक होता है, अर्थात् ज्ञानहीन मनुष्य पशु के समान होता है । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४६) जीव जंतुओं की एक प्रजाति…हर 20 मिनट पर विलुप्त हो रही हैं
147. राजा वेश्या यमो ह्यग्निस्तस्करो बालयाचकौ ।
परदुखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टक: ।।
राजा, वेश्या, यमराज, अग्नि, चोर, बालक, भिखारी और ग्रामीणों को सताने वाले ये आठों बड़े ही कठोर स्वभाव के होते है। ये दूसरों के कष्टों को नहीं समझते। ये सभी वसूलने वालों की तरह निर्दयी होते हैं । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४७)
148. अध: पश्यसि किं वृद्धे पतितं तव किं भुवि ।
रे रे मूर्ख न जानासि गतं तारूण्यमौक्तिकम् ।।
किसी बूढी स्त्री को देखकर कोई युवक उससे व्यंग्य करते हुए पूछता है- हे वृद्धे! नीचे क्या ढूंढ रही हो, क्या पृथ्वी पर तुम्हारी कोई चीज़ गिर पड़ी है, वह बूढी औरत कहती ही की अरे मूर्ख ! तू नहीं जनता की मेरा यौवनरूपी मोती खा गया है, मैं उसी को ढूंढ रही हूँ । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४८) Origin of Thought and Language by Pt. Gurudatt
149. व्यालाश्रयाऽपि विफ़लापि सकण्टकाऽपि वक्राऽपि पड़ि्कल- भवाऽपि दुरासदाऽपि ।
गन्धेन बन्धुरसि केतकी सर्वजन्तोर् एको गुण: खलु निहन्ति समस्तदोषान् ।।
हे केतकी! यद्यपि तुझसे सांप लिपटे रहते हैं, तुझ पर फल भी नहीं लागते, काटें भी होते हैं, टेढ़ी भी है, इसके अतिरिक्त तेरा जन्म कीचड़ में होता है और तू सरलता से प्राप्त भी नहीं होती। फिर भी तेरे में जो सुगंध है, वह सब प्राणियों को मोहित कर लेती है । (चाणक्य नीति हिंदी श्लोक १४९)
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