धर्म में भक्ति का महत्व (भक्तियोग)

 

भक्ति सूत्र पर प्रवचन 

भक्ति स्वयं फलरूपा है। फल वह कहलाता है जिसे जानकर हम छोड़ना न चाहें- अवगतं तत्‌ आत्मैवेष्यते। आम का फल मीठा है, स्वादिष्ट है, यह जान लें तो उसे खाना चाहेंगे। जिसको सुखरूप जानेंगे उसे अपने पास अपने भीतर रखना चाहेंगे। भक्ति फलरूपा है। घर में कुछ वस्तुएं प्रयोजन के कारण रखी जाती हैं। यह पता लग जाए कि घर में सर्प है तो लाठी लाएं। पता लगा कि सर्प घर से निकल गया तो लाठी फेंक दी। 

इसी प्रकार आचरण की शुद्धि के लिए धर्म तथा विक्षेप को निवृत्ति के लिए योग आता है। ज्ञान, अज्ञान की निवृत्ति के लिए आता है। ये धर्म, योग, ज्ञान ऐसे हैं जैसे रोगी को निवृत्ति के लिए औषधि होती है। रोग नहीं रहा तो औषधि फेंक दी किंतु भक्ति तो तृप्तिरूपा है। प्रीति शब्द का अर्थ ही है तृप्ति। प्रीत तर्पण से ही प्रीति शब्द बना है। हम जीवनभर तृप्ति को धारण करना चाहते हैं। प्रीति+सेवा है भक्ति। सेवा में प्रीति हो तब वह भक्ति होती है। बिना प्रीति की सेवा भक्ति नहीं है।  भारत उभर रहा चीन का कड़ा प्रतिस्पर्धी बनकर…

इसी प्रकार निष्क्रिय प्रीति भी भक्ति नहीं है। सेवा कर कुछ और चाहना भक्ति नहीं होती। जैसे ईमानदार नौकर सेवा तो ईमानदारी से करता है किंतु वेतन चाहता है। वेतन से अपने स्त्री-पुरुष का पालन करता है। उसकी प्रीति तो स्त्री और पुत्र में है। इसी प्रकार जो भजन कर कुछ और चाहते हैं वे प्रीति तो चाही वस्तु से करते हैं। वे भक्त नहीं हैं। दर्शन देकर भगवान सदा तो साथ रहेंगे नहीं। दर्शन एक काल में होता है, एक काल में नहीं होता। उसमें संयोग वियोग का क्रम बना रहता है किंतु प्रेम सदा रहता है। वह संयोग में भी रहता है ओर वियोग में भी।
श्रीचैतन्य संप्रदाय में मानते हैं कि प्रेम रस का ही समुद्र है। उसमें श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण के जो आकार हैं ये तरंगे हैं। ये स्थिररूप नहीं हैं। ये तरंगायित रूप हैं। एक तरंग श्रीकृष्ण रूप में और एक श्रीराधारूप में उठती है। दोनों मिलती हैं और फिर लीन होती हैं। कभी श्रीकृष्ण राधा हो जाते हैं और कभी श्रीराधा कृष्ण हो जाती हैं। श्रीराधा वल्लभ संप्रदाय में कहते हैं हिततत्व है। उसकी गोद में श्रीराधा कृष्ण युगल क्रीड़ा करते हैं। प्रत्येक क्षण वे परस्पर परिवर्तित होते रहते हैं। उनका मिलन नित्य नूतन है। परिश्रमी किसान की बुद्धिमता

'लाल प्रिया से भई न चिन्हारी' अनंत अनंत युग से लीलाविहार कर रहे हैं किंतु दोनों में परिचय ही नहीं हुआ। जब दोनों एक-दूसरे के भाव में विस्मृत हो जाते हैं तब दोनों का जो सुखात्मक बोध है वही हिततत्व है। यह भक्ति फलरूपा है, आनंदरूपा है, स्वयं प्रकाश है। बहुत थोड़े लोग जानते हैं कि भक्ति साधन ही नहीं है, वही फल भी है। भक्ति साधन है, यह तो जब जानते हैं किंतु गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्थान-पर भक्ति को फल बतलाया है- 
'सब कर मांगहिं एक फल, राम चरन रति होउ। 
अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहौं निरबान। 
जनम जनम रति राम पद, यह बरदान न आन।'  

जीव के लिए परम रस, परम कल्याण भगवान की भक्ति ही है। भक्ति में ही जीव का परम स्वार्थ एवं परमार्थ

भक्तियोग (बहक्तियोग)

भक्ति का अर्थ है प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा - सृष्टि के प्रति प्रेम और निष्ठा, सभी प्राणियों के प्रति सम्मान और उनका संरक्षण। हर कोई भक्तियोग का अभ्यास कर सकता है, चाहे छोटा हो या बड़ा, धनी अथवा निर्धन, चाहे वह किसी भी राष्ट्र या धर्म से संबंध रखता हो। भक्तियोग का मार्ग हमें अपने उद्देश्य की ओर सीधा और सुरक्षित पहुंचा देता है। भक्तियोग में ईश्वर के किसी रूप की आराधना भी सम्मिलित है। ईश्वर सब जगह है। ईश्वर हमारे भीतर और हमारे चारों ओर निवास करता है। यह ऐसा है जैसे हम ईश्वर से एक उत्तम धागे से जुड़े हों - प्रेम का धागा। 

ईश्वर विश्व प्रेम है। प्रेम और दैवी अनुकम्पा हमारे चारों ओर है और हमारे माध्यम से बहती है, किन्तु हम इसके प्रति सचेत नहीं हैं। जिस क्षण यह चेतनता, यह दैवीय प्रेम अनुभव कर लिया जाता है उसी क्षण से व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की चाहना ही नहीं करता। तब हम ईश्वर प्रेम का सच्चा अर्थ समझ जाते हैं। भक्तिहीन व्यक्ति एक जलहीन मछली के समान, बिना पंख के पक्षी, बिना चन्द्रमा और तारों के रात्रि के समान है। सभी को प्रेम चाहिये। इसके माध्यम से हम वैसे ही सुरक्षित और सुखी अनुभव करते हैं जैसे एक बच्चा अपनी माँ की बाहों में या एक यात्री एक लम्बी कष्टदायी यात्रा की समाप्ति पर अनुभव करता है।  कोरोना से लेकर पर्यावरण तक जानें पीएम मोदी के भाषण की बड़ी बातें…

भक्ति के दो प्रकार हैं : 

अपरा भक्ति - अहम् भावपूर्ण प्रेम 

परा भक्ति - विश्व प्रेम 

भक्त उसके साथ जो भी घटित होता है, उसे वह ईश्वर के उपहार के रूप में स्वीकार करता है। कोई इच्छा या अपेक्षा नहीं होती, ईश्वर की इच्छा के समक्ष केवल पूर्ण समर्पण ही होता है। यह भक्त जीवनभर स्थिति को प्रारब्ध द्वारा उसके समक्ष प्रस्तुत वस्तु के रूप में ही स्वीकार करता है। इसमें कोई ना नुकर नहीं, उसकी एक मेव प्रार्थना है 'ईश्वर तेरी इच्छा'। 

तथापि ईश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम के इस स्तर को पहुंचने से पूर्व हमारी भक्ति अहम् भाव पूर्ण विचारों से ओत-प्रोत होती है। इसका अर्थ है कि हम वास्तव में ईश्वर से तो प्रेम करते हैं, किन्तु ईश्वर से कुछ कामना भी करते हैं। बहुत लोग जब दुख में या परेशानी में होते हैं तब वे सहायता के लिए ईश्वर की ओर जाते हैं। अन्य लोग भौतिक पदार्थों, धन, यश, आजीविका, पदोन्नति के लिए प्रार्थना करते हैं। फिर भी हमें यह सदैव ध्यान रखना चाहिये कि जब हम इस पृथ्वी से विदा होते हैं तब हम अपना सब कुछ छोड़ जायेंगे और यही कारण है कि यहां की किसी भी वस्तु का कोई सचमुच या अनंतकालीन मूल्य नहीं है। Hawan से वायु प्रदूषण का 100% सफाया

आध्यात्मिक खोजी लोग बुद्घि और ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। तथापि, हम प्राय: ईश्वर का एक आन्तरिक चित्र सृजन कर लेते हैं - हमारी दृष्टि से ईश्वर कैसा है, ईश्वर को अब क्या करना चाहिये - और क्योंकि इस कारण हम दैवीय प्रगटिकरण के लिये खुले और तैयार नहीं। 

भक्ति सूत्रों में नारद मुनि (ऋषि) ने भक्तियोग के नौ तत्वों का वर्णन किया है:- 

सत्संग-अच्छा आध्यात्मिक साथ 
हरि कथा-ईश्वर के बारे में सुनना और पढऩा 
श्रद्धा-विश्वास ईश्वर भजन-ईश्वर के गुणगान करना मंत्र जप-
ईश्वर के नामों का स्मरण 
शम दम-सांसारिक वस्तुओं के संबंध में इन्द्रियों पर नियंत्रण 
संतों का आदर-ईश्वर को समर्पित जीवन वाले व्यक्तियों के समक्ष सम्मान प्रगट करना। 
संतोष-संतुष्टि 
ईश्वर प्रणिधान-ईश्वर की शरण 


भक्ति के बिना कोई आध्यात्मिक मार्ग नहीं है। यदि विद्यालय का एक छात्र अध्ययन के किसी विषय को नापसंद करता है, तो वह पाठ्यक्रम को मुश्किल से पूरा कर पाता है। इसी प्रकार हमारे अभ्यास के लिए जब प्रेम और निष्ठा है, हमारे मार्ग पर चलते रहने का दृढ़निश्चय और हमारे उद्देश्य के संबंध में सदैव मान्यता हो तभी हम सभी समस्याओं का समाधान करने के योग्य हो सकते हैं। हम सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा के बिना ईश्वर का साहचर्य प्राप्त नहीं कर सकते। 

भक्ति योग आत्मसमर्पण का योग है। यह आत्मसमर्पण उस परम प्रभु के या उसके प्रतीक के रूप में विभिन्न देवताओं के आश्रय में अहंकार शून्य निष्काम भाव से किया जाता है। विशुद्ध भक्ति के द्वारा शरीर की शुद्धि हो जाती है और अनेक दोषों का निवारण होकर आत्मा की चेतना शुद्ध हो जाती है। भक्ति-योग भारत के जन-सामान्य में विशेष रूप से प्रचलित है। इसमें साधक मस्तिक के धरातल पर अध्यात्म के दुरूह शब्दों का चिन्तन किये बिना अपने आराध्य के स्वरूप का ध्यान करते हुए उनकी प्रशस्ति में मन्त्रों का उच्चारण करते हुए या प्रशस्ति के गीत गाते हुए भावविभोर हो अपने को उनके चरणों में समर्पित कर देते हैं। भक्त के हृदय से जब अहंकार एवं वासना मिट जाती हैं, तब उस पवित्र स्थान पर भगवान स्वयं विराजमान दृष्टिगत होने लगते हैं, ऐसी भक्ति योग की मान्यता है। परमेश्वर के स्वरूप का प्रेम पूर्वक चिन्तन करते हुए मन को तदाकार करना ही भक्ति योग का एक सुलभ उपाय है। चीन से विवाद के बीच लद्दाख पहुंच रक्षामंत्री, हथियार उठाकर दिया बड़ा संकेत

शाण्डिल्य सूत्र में भक्ति की परिभाषा इस तरह की गई है 
‘‘सा (भक्ति) परानुरक्तिरीश्वरे’’ अर्थात् ईश्वर के प्रति हमारा प्रेम निष्काम, निष्प्रयोजन एवं निरन्तर होता रहे। 

भक्ति नौ प्रकार की बतलायी गई, यथा – 

श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। 
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यं आत्म निवेदनम्।। – श्रीमद्भागवद् गीता – 7/5/23 

इस भक्ति योग की वास्तविकता इस अर्थ में है कि साधक इस बात को ठीक से समझे कि भक्ति मार्ग का फल किसी पूजित प्रतीक में नहीं है, बल्कि उस प्रतीक के प्रति हमारा जो आन्तरिक भाव है उस भाव की शुद्धता में है। श्रीमद् भागवद् गीता में भक्ति करने वाले लोग चार प्रकार के बतलाये गये हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथी और ज्ञानी। इसमें अनन्य भाव से भक्ति करने वाले ज्ञानी श्रेष्ठ माने जाते हैं। गीता में भगवान कृष्ण की कई उक्तियाँ भक्ति योग से सम्बन्धित मानी जाती है। यथा :- 

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। 
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। – गीता 4/39 

अर्थात् जब श्रद्धावान् पुरुष इन्द्रिय निग्रह द्वारा ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न करने लगता है, तब उसे ब्रह्मात्मैक्य रूप ज्ञान का अनुभव होता है और फिर उस ज्ञान से उसे पूर्ण शान्ति मिलती है। 

इसी तरह गीता के अठारहवें अध्याय के श्लोक 55 में कहा गया है – 

भक्तया मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:। 
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। 

अर्थात् भगवान कृष्ण कहते हैं कि मेरे स्वरूप का तात्विक ज्ञान भक्ति से होता है और जब यह ज्ञान हो जाता है तब वह भक्त मुझमें आ मिलता है। भक्ति योग की उपलब्धि ईश्वरार्पण बुद्धि में ही है। त्वचा की सफाई न करने से होने वाले रोगों उपचार कैसे करें

भागवत् में भी भक्ति योग के सम्बन्ध में एक श्लोक है – 

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्धयात्मना वाऽनुसृतस्वभावात्। 
करोति यद्तत्सकलं परस्मै नारायणायैति समर्पयेत्तत्।। 

अर्थात् काया, वाचा, मनसा, इन्द्रिय, बुद्धि या आत्मा की प्रवृत्ति से अथवा स्वभाव के अनुसार जो कुछ हम किया करते हैं, वह सब परात्पर नारायण को समर्पण कर दिये जाय। यही भक्ति की वास्तविक भूमि है। आज बहुत से लोग भक्ति का अर्थ सामान्यतः कीर्त्तन करना, भजन गाना, प्रार्थना करना आदि तक ही सीमित रखते हैं। वास्तव में ये भक्ति के प्रारम्भिक चरण हो सकते हैं। मगर सही अर्थ में ये भक्ति के पर्याय नहीं है। 

आज कल तो इस वाह्य भक्ति के प्रारम्भिक स्तर में भी अनेक प्रकार की गिरावटें आती आ रही हैं। कोई सिनेमा के तर्जों पर बिना कुछ सोचे-समझे भजनों का आलाप ले रहा है तो कोई ताल-सुर के साथ भाव-नृत्य को प्रश्रय दे रहा है। भक्ति के नाम पर फूहड़ता का भी प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है। स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध और यहाँ तक कि कथा वाचक भी फिल्मी अन्दाज में भाव-भंगिमा दर्शाते हुए नृत्य-संगीत को बढ़ावा दे रहे हैं। 

सद्गुरु कबीर साहब की एक व्यंगात्मक वाणी है :- 

नाचना कूदना ताल को पीटना, राँड़िया खेल की भक्ति नाहीं। 
रैन दिन तार निरधार लागी रहै, कहैं कबीर तब भक्ति पाहीं।। 

यानी आत्मा की तार जब दिन रात उस परमात्मा (निरधार) से लगी रहे, तभी वह विशुद्ध भक्ति योग कहलाती है। आज भक्ति के यथार्थ को जानने की जरूरत है। तथा कथित भक्ति योग भी हमें अन्ध भक्ति नहीं सिखलाता है। इस भक्ति योग के मर्म को भी जानने की जरूरत है। इस सामान्य भक्ति में भी भाव-पक्ष की प्रधानता है और वह भाव-प्रदर्शन कृत्रिम नहीं होना चाहिए। अपने इष्ट के प्रति प्रेम हार्दिक होना चाहिए और बिल्कुल शुद्ध अन्तःकरण से यह भक्ति-भाव जाग्रत होना चाहिए। इस भक्ति-योग में अहंकार शून्यता का महत्व रहता है और भक्त अपने भगवान के प्रति आन्तरिक रूप से पूर्णतः समर्पित रहता है। जटायु संरक्षण केंद्र यूपी में जल्द बनेगा, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के सहयोग से…

इसलिए भक्ति कभी भी केवल वाह्य प्रदर्शन के लिए नहीं की जाती बल्कि आन्तरिक भूमि में मन को निर्मल करके समर्पण की भावना के साथ की जाती है। इस भक्ति योग में समाधि तक की चर्चा है मगर उसके पूर्ण विज्ञान को किसी समर्थ सदगुरु से सीखने की जरूरत है। भक्ति योग में धीरे-धीरे अन्तःकरण की शुद्धि करनी पड़ती है और सामान्य भक्ति से ज्ञान जन्य भक्ति की ओर हमारी यात्रा होती है। आँखों के रोग कौन-कौन से हैं और इनका इलाज कैसे करें ?

भक्ति योग में समाधि की प्राप्ति के लिए साधक अपने इष्ट देवता का अपने हृदय में स्मरण करते हुए उनके दिव्य स्वरूप में भाव विभोर हो अपने अहं को छोड़कर एक तादात्म्यकता का अनुभव करते हैं और भाव विह्वलता के इस क्षण में अपनी सुख-बुध खो देते हैं। यह अवस्था प्रारम्भ में भावात्मक ही रहती है, मगर धीरे-धीरे अन्तःकरण शुद्ध होन लगता है और बार-बार इस अवस्था की आवृत्ति से साधक की चेतना आप ही आप उन्नत होने लगती है और अन्त में उसे यथार्थ स्वरूप का ज्ञान भी हो जाता है। भक्ति योग में परमात्मा से तादात्म्य सहज रूप से हो जाता है, ऐसा बतलाया गया है। -Alok Nath

Post a Comment

0 Comments