चाणक्य अर्थशास्त्र एक अदभुत ग्रन्थ कैसे हैं ?


चाणक्य कालीन सम्पूर्ण इतिहास 

चाणक्य गंगा नदी के तट पर पाटलीपुत्र नाम का शहर बसा था। इसे कुसुमपुर भी कहते थे । ग्रीष्म की भरी दोपहरी में इस शहर में एजक सभामंड़प के सामने से एक आदमी जा रहा था। वह जल्दी में था तथा ब्राहमण था व उसकी आँखों में चमक थी । अचानक चलते-चलते घांस के खूंट से उसका पैर टकराया और वह गिरते-गिरते बचा। उसे बहुत क्रोध आया। जिस खूंट से वह टकराया उसकी जड़ें जमीन में बहुत गहरी थी। वह नीचे बैठ जड़ खोदने लगा। इस प्रकार उसने अपनी कड़ी मेहनत से उस खूंट को समूल निकाल कर बाहर फेंका और आगे चलने लगा । उस ब्राहमण का नाम था चाणक्य । भारत को दिया एक अरब डॉलर का कर्ज ब्रिक्स बैंक ने

सभामंड़प के द्वार पर खड़ा एक व्यक्ति यह सब देख रहा था । वह युवा था तथा तेजस्वी लग रहा था । उसकी की और देखते हुए उसने सोचा, “कितना दृढ़निश्चयी है यह व्यक्ति! वह चाणक्य के पास पहुंचा। आदर के साथ चाणक्य को सभामंड़प में लें गया ।

चाणक्य ने पूछा-“आप कौन हैं? आप चिंतित लग रहे हैं।” उस अधिकारी ने कहा- “मेरा नाम चन्द्रगुप्त हैं।” चाणक्य ने कहा “ऐसा प्रतीत होता हैं, आप भारी संकटों से गुजरे हैं। क्या आप मुझे आपकी चिंता का कारण बता सकते हो ?” गुरु जी और चेला साथ रहिये और साथ खाइए कहानी’
चन्द्रगुप्त आश्वस्त होकर बताने लगा-“मैं महाराजा स्वार्थसिद्धि का पौत्र हूँ। धीरे-धीरे चन्द्रगुप्त सारी बातें चाणक्य को बता देता हैं और अंत में कहता है कि ऐसी स्थिति से उठने के लिए क्या आप मेरी सहायता करेंगे?”

चाणक्य ने कहा- “देखो चन्द्रगुप्त! मैं तुम्हे तुम्हारा सिंहासन पुन: प्राप्त करा दूंगा। लेकिन इन नन्दों मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ा हैं? फिर भी मैं ऐसे कुछ करूँगा ताकि वे मुझसे अभद्र व्यवहार करें और फिट यह निश्चित समझ लेना की तुम्हारा कार्य हो गया ।”

नन्दों का वंश ख़त्म :- 
सभामंड़प में भोजन का समय था । वहीँ चाणक्य जाकर एक सिंहासन पर बैठ गए। उसी समय नौनंद भी वहां पहुँच गएँ। उन्हें यह देखकर बहुत क्रोध आया की राजसिंहासन पर एक कुरूप सा व्यकित जाकर बैठ गया हैं। उन्होंने उसे सिंहासन से नीचे खिंचा । चाणक्य अपमानित हुए। क्रोध से आगबबूला होकर अपनी शिखा खोलते हुए बोले-“हे दुष्टों! तुमने मेरा अपमान किया हैं । मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक तुम्हारे पुरे परिवार को नष्ट नहीं कर दूंगा, मैं अपनी चोटी में गांठ नहीं लगाऊंगा।” यह कहते ही बाहर निकल आये । “नौनंद चाणक्य की इस चुनौतीपूर्ण घोषणा से नहीं घबराएँ ।खुजली के उपाय सभी चर्म रोगों का एक झटके में सफाया कैसे करें ?

लेकिन चाणक्य ने भी हिम्मत नहीं हारी । समय के साथ वह अकेले ही नन्दों और उनके मंत्री अमात्य राक्षस के विरोध में डटें रहे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त को सिंहासन पर बिठाया तथा अमात्य राक्षस, जो चन्द्रगुप्त का कट्टर विरोधी था उसे ही उसका मंत्री बनाया । चाणक्य की कहानी लगभग 2300 वर्ष पूर्व की हैं, जिस कारण उसकी पूर्ण सत्यता के बारे में विभिन्न मत हैं। उपरोक्त कहानी ही उसे लोकप्रिय बनाती हैं ।

असाधारण व्यक्तित्व 
चाणक्य बहुत ही बुद्धिमान थे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उनका संकल्प अतुलनीय था। शास्त्रों में पारंगत चाणक्य अर्थशास्त्री भी थे । एक राजनीतिज्ञ के रूप में उनका कोई सनी नहीं था । साम, दाम, दण्ड, भेद नीति में वे गुरु थे । अपने कार्यों को गुप्त रूप से तथा दूरदृष्टि से सम्पन्न करने में वे कुशल थे । वे बहुत धार्मिक प्रवृति के थे । योग साधना भी करते थे । ऊपर से क्रूर दीखते थे । शत्रुओं को परास्त करने के लिए अत्यंत निर्णायक चलने चलना उसके लिए सहज था । CO2 का उत्सर्जन चार दशक में पहली बार हुआ कम…

इस बुद्धि के ज्ञाता को कौटिल्य नाम से भी जाना जाता हैं । कुछ लोग कहते हैं की चीन में पैदा होने के कारण उनका नाम चाणक्य रखा गया । चाणक्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र आज दुनिया की अनेक भाषाओँ में अनुवादित किया गया हैं । दुर्भाग्यवश चाणक्य के बारे में अधिकृत रूप से अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं हैं ।

चाणक्य की शिक्षा-दीक्षा
चाणक्य की शिक्षा-दीक्षा सुप्रसिद्ध तक्षशिला नगर में हुई । तक्षशिला के अध्यापक और विद्वान् विश्वविख्यात थे । देश-विदेश से छात्र यहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे । राजा भी राजकुमारों को यहाँ शिक्षा के लिए भेजते थे । साधारणतया सोलह वर्ष की आई में छात्र तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे । चरों वेद, धनुर्विद्या, शिकार, हाथी संचालना और अठारह अन्य कलाओं में यहाँ शिक्षा दी जाती थी । इसके अतिरिक्त न्यायशास्त्र, चिकित्साशास्त्र और सामाजिक कल्याण जैसे विषयों में भी यहाँ शिक्षा दी जाती थी। ऐसे स्थान पर चाणक्य ने शिक्षा ग्रहण की ।वेद भाष्य कौन से है और किस भाष्यकार के उत्तम भाष्य है ?

सैन्य गठन –
यूनानियों के विरुद्ध चन्द्रगुप्त और चाणक्य के संघर्ष का यधपि पूरा विवरण उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी यह बात तो स्पष्ट थी कि न चन्द्रगुप्त राजा थे और न उनके पास कोई सशस्त्र सेना थी । बहुत बड़ी सेना खड़ी करना भी आसान काम नहीं था । लेकिन दृढ़निश्चयी चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर विभिन्न क्षेत्रों का प्रवास किया और सैन्य संगठन में लग गए । चाणक्य को पता था की यह पर्याप्त नहीं हैं । इस प्रकार उन्हें हिमालय क्षेत्र की मजबूत सेना की सहायता पारपत हुई । वैदिक मंत्रों से मिल सकती है राहत… अमेरिका ने भी माना

सिकंदर जहाँ भी गया, उसने वहां अपने कुछ लोग सैनिक तैनात किये । लेकिन ये ओग रुकना नहीं चाहते थे और वापस यूनान जाना चाहते थे । सिकंदर ने भारत में लड़ाई जितने के बाद यहाँ के प्रदेशों को कुछ हिस्सों में बाँट दिया और वहां शासन करने के लिए सूबेदारों की नियुक्ति की । सूबेदारों की नियुक्ति से क्षेत्र में विद्रोह होते और सूबेदारों की हत्या कर दी जाती । सिकंदर द्वारा एक अनुभवी सेनापति फिलिप की इसी प्रकार हत्या कर दी । जो सूबेदार भारतीय थे, उनमे विफलता की भावना घर कर गयी । वे भी अवसर की तलाश में थे । जब सिकंदर भारत छोड़कर चला गया और बेबीलोन में ईसापूर्व 323 में उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी तो सबी सूबेदारों को स्वतंत्र घोषित कर दिया । विदुर नीति (Vidur Niti) प्रमुख श्लोक एवं उनकी व्याख्या

यूनानियों से आज़ादी पाई :- 
इस बीच चन्द्रगुप्त तक्षशिला में शिक्षा पाकर और चाणक्य के मार्गदर्शन में एक कुशल नेता बन चुके थे । चाणक्य को उन्होंने सेनाप्रमुख भी बना दिया था । चन्द्रगुप्त के सेना और शक्ति का आधार चाणक्य की बुद्धिमता थी । सूबेदारों की मृत्यु के बाद सभी सूबेदारों की या तो हत्या हुई या उन्हें अपदस्थ कर दिया गया । ईसा पूर्व 321 में सिकंदर के सेनापतियों ने उसके साम्राज्य को आपस में बाँट लिया । सिंध के पूर्व में सिकंदर का कोई राज्य नहीं रहा । यूनानियों ने स्वयं स्वीकार कर लिया की यह क्षेत्र उनके नियंत्रण में नहीं हैं ।

अर्थशास्त्र :-
चाणक्य द्वारा लिखित अर्थशास्त्र की पुस्तक विश्वविख्यात हैं । यूरोपीय राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री उसे गहन रूचि के साथ पढ़ते हैं । इस पुस्तक में राजतन्त्र से सम्बंधित विस्तृत दिशा निर्देश हैं- राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा, राजदूतों और जासूसों का चयन, न्याय-व्यवस्था, पुलिस और सेना, गुप्तचर व्यवस्था, सुरक्षा, आन्त्रिक प्रशासन जैसे अनेक विविध विषयों पर एक ही पुस्तक में जानकारी मिलना आचार्यजनक हैं ।Origin of Thought and Language by Pt. Gurudatt

उनके अनुसार- राजा का पहला कर्तव्य हैं धर्म व सत्य की रक्षा करना। जो राजा सत्य और सद्गुणों को आश्रय देगा वह सुखी होगा। जो राजा अपने अधिकारों और सत्ता का दुरूपयोग करेगा वह दण्ड का भागी होगा । राजा को कभी भी वैयक्तिक सुख के बारे में नहीं सोचना चाहिए। जनता के सुख और आनंद में ही उसका आनंद और सुख निहित हैं । उपरोक्त सभी बातें चाणक्य ने 2300 वर्ष पूर्व लिखकर रखी। ऐसा था यह महान, बुद्धिमान एवं विलक्षण व्यक्ति-साहस और स्वाभिमानी की साक्षात प्रतिमूर्ति! - आलोक आर्य 

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